Wednesday, December 21, 2005

राजदीप सरदेसाई को दस में दस

राजदीप सरदेसाईईमानदार कोशिशें हमेशा रंग लाती है. इसकी ताज़ा मिसाल है अपनी पीढ़ी में सबसे प्रतिभाशाली हिन्दुस्तानी पत्रकार राजदीप सरदेसाई का नया समाचार चैनल सीएनएन-आईबीएन. इस चैनल के टेस्ट सिग्नल की शुरुआत हो गई है और संभवत जनवरी के पहले सप्ताह से यह विधिवत मैदान में होगा.
अगर आप पहली नज़र के प्यार पर यकीन करते हैं तो मैं कहना चाहूंगा कि कल रात पहली मुलाकात में ही मुझे सीएनएन-आईबीएन से प्यार हो गया. वैसे तो मैं खुद भी पत्रकार रहा हूं लेकिन इस बहुचर्चित और बहुप्रतिक्षित चैनल के सामने कल मैं एक आम दर्शक के रूप में बैठा था. मेरा अनुभव कहता है कि यह चैनल भीड़ से बिलकुल अलग है. राजदीप के आईबीएन सेना का हर सिपाही अपना बेस्ट देने की कामयाब कोशिश कर रहा था. सबसे मजेदार बात तो मुझे यह लगी कि इनमें से कुछ सिपाही जब दूसरी सेनाओं में थे तब वे इतने योग्य कभी नहीं लगे. इस बात के लिए मुझे एक बार फिर राजदीप के नेतृत्व की तारीफ करनी पड़ेगी.
कल तकरीबन ढाई घंटे तक मैंने इनका प्रसारण देखा, न्यूज़ ब्रॉडकास्ट के हर क्षेत्र में यह चैनल नये मानक तय करता मालूम पड़ता है. सही मायने में इस चैनल की शुरुआत के साथ भारत में न्यूज़ ब्रॉडकास्ट बिजनेस परिपक्वता के साथ दूसरे चरण में प्रवेश कर रहा है जहां पहले चरण के फिसड्डियों के लिए कोई जगह नहीं होगी.
चैनल के अपने एक प्रोमो में राजदीप ने ख़बरों के बमरूपी ताकत के सही इस्तेमाल का भरोसा दिलाया है. कभी एनडीटीवी के डॉ. प्रणव रॉय के सेनापति रहा यह योद्धा अगर इस भरोसे पर खरा उतरता है तो फिर उसके लिए अनंत ही सीमाएं होंगी. लेकिन इससे पहले राजदीप के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती होगी वह है आईबीएन का हिंदी संस्करण लाना और उसे सफल बनाना. चूंकि वे अंग्रेजी में खुद को सहज महसूस करते हैं इसलिए उनपर इस बात का दबाव होगा की वे हिंदी में भी बेहतर करके बाताएं. वैसे मुझे पूरा यकीन है कि वे ऐसा कर पाने में कामयाब होगें.
मेरी शुभकामनाएं राजदीप और उनकी पूरी टीम के साथ है.

सीएनएन-आईबीएन

Sunday, December 18, 2005

सवेरा होगा

कुछ दूर, नहीं बहुत पास
कुछ है, कुछ है वहां
एक आकृति कुछ धुंधली-सी
इधर ही आती
नहीं, मैं ही चलूं वहां
देखूं तो क्या वही है
जिसकी है तलाश मुझे
अरे! यह घुप अंधेरा कहां से आया
कहां गई वो
शुरू फिर वही तलाश
जरूर कोई बात है
तभी तो आई ये अमावस-सी रात है
शायद मुझे रोशनी की तलाश है
वह आकृति नहीं भटकाव था
डगमगाया तभी तो मेरा पांव था
होगी एक नई सुबह
न आकृति होगी... न अंधेरा होगा...
सिर्फ सवेरा होगा...

Wednesday, December 14, 2005

महाराष्ट्र और बिहार दोनों भारत में ही हैं

विश्वनाथ सचदेव
लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार और नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक हैं.

तीस-चालीस साल पुरानी हो चुकी यह बात। तब मैं नागपुर विश्वविद्यालय में पढ़ता था। जिस हॉस्टल में मैं रहता था, उसमें कई राज्यों के विद्यार्थी थे। सवेरे सबको जल्दी होती थी। गुसलखाने में रोज लाइन लगती थी। गर्म पानी के लिए सिर्फ एक गीजर था। अक्सर झड़प भी हो जाती थी। पर वह झड़प वहीं तक सीमित होती थी। नहा-धोकर फिर सब साथ हो जाते थे। किसी को किसी की 'दादागिरी' से शिकायत नहीं रहती थी। चालीस साल पुरानी ये बातें मुझे मुम्बई के जे.जे. अस्पताल में डॉक्टरी पढ़ रहे विद्यार्थियों के संदर्भ में याद आ रही हैं। हाल ही में यहां भी गर्म पानी पर विवाद हो गया था। पहले भी होता होगा ऐसा विवाद, पर इस बार मामला तूल पकड़ गया।

सुना है, कुछ विद्यार्थी फरियाद लेकर शिवसेना के बागी नेता राज ठाकरे के पास जा पहुंचे। उन्हें शिकायत थी कि बाहरी राज्यों के, खासकर बिहार के, विद्यार्थी झगड़ा करते हैं। राज को इन दिनों मुद्दों की जरूरत है। वे तत्काल हस्तक्षेप के लिए तैयार हो गए। राज के प्रतिद्वंद्वी उद्धव को भी भनक लगी। मराठी माणूस का नारा लगाते हुए उनके सहयोगी राज से पहले ही 'मदद' के लिए वहां जा पहुंचे। बीजेपी को भी लगा, स्थिति का राजनीतिक फायदा उठाया जा सकता है, सो प्रमोद महाजन ने घोषणा कर दी कि बिहार से आए विद्यार्थियों को 'दादागिरी नहीं करनी चाहिए'। उन्होंने इस संदर्भ में बिहारियों को अफ्रीकियों के साथ भी जोड़ दिया। कांग्रेस में नए-नए शामिल हुए पूर्व शिवसैनिक संजय निरुपम भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, सो उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन किया। महाजन को लताड़ा। बिहार के नए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भला कैसे चुप रहते। उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को संदेश भेजा- बिहारी विद्यार्थियों की रक्षा करो। इस बीच पुलिस ने कुछ उपद्रवी विद्यार्थियों को गिरफ्तार कर लिया था।

अब सवाल यह उठता है कि एक छात्रावास में हुए मामूली विवाद ने यह अखिल भारतीय आकार कैसे ग्रहण कर लिया? और सवाल यह भी है कि चालीस साल पहले ऐसे विवाद अपने आप क्यों सुलझ जाते थे? इन प्रश्नों का एक सीधा सा उत्तर तो यह है कि तब शिवसेना नहीं थी। ऐसा नहीं है कि तब क्षेत्रीयता की बात नहीं होती थी। भूमिपुत्रों के अधिकारों की मांग भी होने लगी थी। लेकिन तब शायद राजनीतिक दलों के सामने मुद्दों का ऐसा अकाल नहीं था, जैसा आज है। तब मुद्दे उठाए जाते थे, अब मुद्दे बनाए जाते हैं। मैं जब नागपुर में पढ़ता था, उसके दो-तीन साल बाद ही शिवसेना का गठन हो गया था। परप्रांतीयों की बात भी करने लगी थी तब वह। लेकिन तब शिवसेना एक गैरराजनीतिक दल थी। तब मराठी माणूस के हितों की बात होती थी, अब मराठी माणूस के नाम पर राजनीति होती है। इसीलिए जे.जे. अस्पताल के हॉस्टल में उठा छोटा सा विवाद एक तथाकथित राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। शिवसेना, बीजेपी, कांग्रेस सब इसे भुनाने की कोशिश में लग गए हैं। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सचाई है कि उद्देश्य राजनीतिक स्वार्थों को साधना है। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह भी है कि विद्यार्थियों को मराठी या बिहारी या पंजाबी के रूप में देखा जा रहा है। देश के हर नागरिक को एक भारतीय के रूप में कब स्वीकार करेंगे हम?

जे.जे. अस्पताल के विद्यार्थियों का विवाद सामने आते ही यह कहा गया कि बिहार के विद्यार्थियों ने हॉस्टल में लगे 'जय महाराष्ट्र' के पोस्टरों को फाड़ कर 'जय बिहार' के पोस्टर लगाए। यदि ऐसा हुआ है तो यह गलत है, लेकिन सवाल यह उठता है कि हॉस्टल में जय महाराष्ट्र के पोस्टर लगाने की जरूरत क्यों समझी गई? महाराष्ट्र में रहने वाले हर व्यक्ति का संकल्प जय महाराष्ट्र होना चाहिए। जैसे जयहिंद हम सबका नारा है, वैसे ही जय महाराष्ट्र भी हम सबका है। न इसका अपमान होना चाहिए, न इस भावना को कम आंका जाना चाहिए। लेकिन यदि इस आशय के पोस्टर मुम्बई में रहने वालों के बीच दीवारें उठाते हैं तो कहीं जरूर कुछ गड़बड़ है। आज जरूरत इस गड़बड़ पर उंगली रखने की है। जय महाराष्ट्र और जय बिहार में कहीं कोई विरोध नहीं होना चाहिए। दोनों की जय में ही भारत की जय निहित है। इसलिए यह कामना राजनीति का मोहरा नहीं बननी चाहिए।

यह एक संयोग हो सकता है कि जब मुम्बई में बिहारी विद्यार्थियों को विवाद का मुद्दा बनाया जा रहा था, तभी असम में एक और विद्यार्थी सेना बन रही थी- गैर असमियों का विरोध करने के लिए। यह कोई छुपा रहस्य नहीं कि असम में गैर असमियों के विरुद्ध आंदोलन कुल मिलाकर राजनीतिक स्वार्थों की लड़ाई ही है। महाराष्ट्र में भी भूमिपुत्रों के हितों की लड़ाई राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने का माध्यम ही बनी। वोट बैंक की इस राजनीति से कुछ व्यक्तियों-दलों को भले ही लाभ होता हो, पर देश घाटे में ही रहता है। बहुत पुरानी नहीं हुई है वह बात, जब कल्याण स्टेशन पर बिहार, यूपी आदि से नौकरी की तलाश में आए युवाओं को पीटा गया था। वह घटना भारतीयता के गाल पर एक तमाचा थी। तब राजनीतिक ताकत बढ़ाने की कोशिश हुई थी, अब राजनीतिक ताकत बनाने की कोशिश हो रही है। इस बात का ध्यान कोई नहीं रखना चाहता कि इस कोशिश में देश की ताकत कमजोर हो रही है। हमारे राजनेताओं और दलों को पूरा अधिकार है अपनी-अपनी ताकत बनाने-बढ़ाने का। लेकिन देश को कमजोर बनाने का अधिकार किसी को नहीं है। महाराष्ट्र या बिहार या असम की जय तभी हो सकती है, जब देश की जय हो। इसलिए देश का हित सर्वोपरि है। जाने-अनजाने इस हित के विरुद्ध जो भी कदम उठता है, वह अपराध है।

नहाने के लिए गर्म पानी के नाम पर शुरू हुए छोटे से विवाद में राजनीतिक स्वार्थों को साधने की संभावनाएं तलाशने वाली मानसिकता के खिलाफ एक अभियान की आवश्यकता है। और इस अभियान का पहला कदम होगा राजनेताओं से यह कहना कि कृपया हमें अपनी राजनीति का मोहरा न बनाइए। कृपया अपने स्वार्थों के लिए नहीं, देश के हित के लिए राजनीति कीजिए।
(नवभारत टाइम्स से साभार)

Thursday, December 01, 2005

अनुगूँज १५ - हम फिल्में क्यों देखते हैं?


हम फिल्में क्यों देखते हैं?
जाहिर सी बात है फिल्में बनती हैं इसलिए हम फिल्में देखते हैं. यकीन मानिये अगर फिल्में नहीं बनतीं तो हम कुछ और देखते. मसलन, कठपुतली का नाच, तमाशा, जात्रा, नौटंकी, रामलीला या ऐसा ही कुछ और. खैर सौभाग्य या दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है इसलिए हम वापस फिल्मों की ओर चलते है.
शुरू करते हैं सिनेमाघर में पहली फिल्म देखने से. इस मंदिर में मैंने पहली पूजा स्कूल से निकलने और कॉलेज में दाखिले के पहिले की थी. नाम तो ठीक-ठीक याद नहीं पर फिल्म में हिरोइन अपने अजय देवगन की श्रीमती (तब कुवांरी) काजोल थीं और शायद उनकी भी यह पहली ही फिल्म थी. ( पहली फिल्म देखने में मैंने इतनी देर क्यों की? मुगालते में मत रहिये... शराफत के किस्से आगे हैं.) कोलफील्ड की हमारी कॉलोनी शहर से बीस किलोमीटर दूर थी और हम बच्चों की पूरी दुनिया कॉलोनी तक ही सीमित हुआ करती थी. लिहाजा शहर के सिनेमाघर में यह फिल्म देखना मेरे लिए बड़ा ही साहसिक कदम और नये अनुभवों से भरा था... उस दिन तो मानो खुले आसमान में पहली उड़ान-सा अहसास था.
अब चलिए जरा पीछे के कालखंड में चलकर मेरे फिल्में देखने के कारणों की पड़ताल करते हैं. तकरीबन 1500 घरों की हमारी कॉलोनी में पहला टेलिविजन सन 84 के आखरी महीनों में और हमारे मुहल्ले में उसके कुछ महीने बाद यानी सन 85 में आया. यही से शुरू होता है मेरे फिल्म दर्शक बनने का सिलसिला. हालांकि इससे पहले कॉलोनी के खुले मैदान में 16 एमएम प्रोजेक्टर से साप्ताहिक दिखाई जाने वाली फिल्में देखी थी पर यादें धुंधली है इसलिए उस दौरान देखी गई फिल्मों का दोष घर के बुजूर्गों के मत्थे.
जैसा कि मैंने अपने मुहल्ले में टीवी आने का जिक्र किया है. स्वाभाविक-सी बात है यह एक ऐतिहासिक घटना (मेरे फिल्मची बनने की जड़े यहीं हैं) थी... और मुहल्ले के इस इतिहास के रचयिता थे बच्चों के चहेते तिवारी चचा. बाद में मुहल्ले के पहले रंगीन टीवी और पहले वीसीपी के स्वामित्व का सम्मान भी इन्हीं के खाते में आया. बहरहाल तिवारी चचा अपने घर टीवी आने के ऐतिहासिक आयोजन में हम बच्चों को शामिल करना नहीं भूले. शायद चचा को मालूम था कि हम बच्चे ही इस इतिहास के जीते-जागते पन्ने हैं जिसके माध्यम से जमाने में उनकी कृतित्व को पढ़ा जायेगा. हुआ भी यही, आगे महीनों तक हम बच्चे चचा के शौर्य का यशगान करते रहे. इस मुनादी के लिए चचा हममें बिना नागा किये दूरदर्शन के कार्यक्रमों की आरएसएस फीड डालना नहीं भूलते. घर वालों को भी हमारे टीवी देखने पर कुछ खास ऐतराज नहीं होता था. कारण:- एक तो मुहल्ले का लगभग हर घर तिवारी चचा के शौर्य के प्रभाव में आ चुका था और वह खुद भी दर्शकों में शामिल था, दूजा यह कि घर वालों को कुछ समय के लिए हमारे उधम से छुटकारा मिल जाया करता.
उन दिनों हमारे इतवार खास होने लगे. क्योंकि एक तो इतवार की शाम को टीवी पर फिल्में आती दूसरे सिर्फ इतवार को ही दिन में भी कार्यक्रम प्रसारित होते. हालांकि फिल्मी गीतमाला चित्रहार की वजह से बुधवार और शुक्रवार की भी खासी अहमियत थी. हालांकि शुरूआत में हमारे लिए फिल्म और कृषि दर्शन, चित्रहार और समाचार में ज्यादा अंतर नहीं था. हमारे लिए तो टीवी देखना ही एकमेव ध्येय था. शाम को दूरदर्शन के पट खुलने से लेकर जब तक झपकी न आने लगे तब तक बच्चे चचा के घर डटे रहते. अक्सर हमसे से अधिकतर टांगकर या बहला फुसलाकर घरों को लाये जाते. कभी-कभी तो हम दूरदर्शन के पट बंद होने तक उस पर टकटकी लगाये रहते.
खैर, समय बीतता गया. धीरे-धीरे हमें टीवी के दूसरे कार्यक्रमों और फिल्मों का फर्क समझ में आने लगा. कहने की जरूरत नहीं कि फिल्में हमें ज्यादा आकर्षित कर रही थी. अब तक मेरे घर सहित मुहल्ले के कई घरों में टीवी के एंटिने दिखने लगे थे. लेकिन हमारे तिवारी चचा के घर की रौनक पर मुहल्ले के दूसरे एंटिना फर्क नहीं डाल सके थे. क्योंकि अब उनके टीवी के स्क्रीन पर तस्वीरें रंगीन दिखने लगी थी. मुहल्ले के इतिहास के सूत्रधारों यानी हम बच्चों की अब भी चचा का वफादार बने रहना टीवी (ब्लैक एंड ह्वाइट ही सही) वाले घरों के अभिभावकों को खटकने लगा था. पर अक्सर उनकी झिड़कियों पर चचा का रंगीन टीवी भारी पड़ता. (आज फिल्मों में रंग-संयोजन के प्रति अपने संवेदनशीलता की वजह मैं इसे ही मानता हूं.)
अब उस दौर का आगमन होता है जब फिल्में देखने के लिए उस दूरदर्शन पर निर्भरता कम होती जा रही थी, जिस पर सिर्फ पुरानी फिल्मों की ही चहल थी. वीएचएस क्रांति के इस दौर में के हमारे फिल्म दर्शकत्व को एक नया आयाम मिला और हम नई फिल्में देखने में खुद को सक्षम पाने लगे. इस दौर को विडियो युग कहना सबसे सही होगा. इस दौर में वीसीपी और वीसीआर का स्वामी होना मुहल्ले में किसी सल्तनत के सुल्तान-सी हैसियत दिलाता था. हालांकि मुहल्ले के पहले वीसीपी का मालिक होने का श्रेय भी अपने तिवारी चचा को ही जाता है, मगर तब तक बाज़ार में वीसीपी किराये पर देने का व्यवसाय शुरू हो चुका था. इस व्यवसाय की वजह से चचा की बैठक को किसी और बैठक से कड़ी चुनौती मिलने वाली थी.
यह चुनौती मिली मुहल्ले में एक ऐसे सदस्य के आगमन से जो पुलिस सेवा में थे. इस परिवार के आने से हमारी वानर की ताकत में तो इजाफा हुआ ही साथ ही मुहल्ले के लोगों की फिल्में देखने की आदत में आमूलचूल परिवर्तन हुआ.
हमारे ये नये पड़ोसी बाजार में उपलब्ध सेवाओं के इस्तेमाल से तो परहेज नहीं करते लेकिन पुलिस में थे इसलिए उसकी कीमत चुकाना अपनी शान के खिलाफ समझते. विडियो पर फिल्में दिखाने वालों पर तो ये मानो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे. अब इस तरह के सुविधा से लैस पड़ोसी के मुकाबले अपने तिवारी चचा कहां टिकने वाले थे, लिहाजा अब वो हथियार डाल दिया. इस मामले में ड्राइविंग सीट तो चचा ने छोड़ दी लेकिन बस की सवारी नहीं छोड़ी. आखिर थे तो वो बहुत बड़े फिल्मची. उनके फिल्म प्रेम से प्रेरणा और उनके संरक्षण में हम सब ने अपने पुलिस पड़ोसी के विशेषाधिकारों का इस्तेमाल शुरू कर दिया. पुलिस पड़ोसी के नाम की धौंस पट्टी में इलाके के सभी विडियो पार्लर वाले थे. बस जब भी इशारा होता पार्लर वाले वीसीपी और चार-पांच कैसेट तो देते ही देते अपना रंगीन टीवी भी ठेले पर लदवाकर हमारे मुहल्ले में पहुंचा जाते. इस दौर में हमारे मुहल्ले में विडियो फिल्म प्रदर्शन सार्वजनिक आयोजन का रूप ले चुका था. और जब आयोजन सार्वजनिक हो तो भव्य होना लाजिमी है. पुलिस पड़ोसी के राज में विडियो प्रदर्शन कमरों से निकलकर बाहर खुले में होने लगे और एक-साथ कम-से-कम तीन-चार फिल्मों का प्रदर्शन अनिवार्य हो गया. इस तरह के आयोजनों की नियमितता लगभग साप्ताहिक होती थी. विशेष मौकों पर कभी-कभी यह आयोजन सप्ताह में एकाधिक बार होते. भव्यता की वजह से विडियो लोकप्रियता में टीवी को भी पीछे छोड़ चुका था.
अब तो यह दौर भी बीत चुका है. आज तो देशी के साथ-साथ विदेशी फिल्में देखने के लिए भी कई विकल्प हैं लेकिन टीवी और विडियो के दौर में मैंने फिल्मी भांग इतनी ज्यादा खा ली है कि अब फिल्मों का कोई नशा चढ़ता ही नहीं. अब तो घर में छोटे पर्दे अपने सामने फिल्म के लिए तीन घंटे बैठा सकने की क्षमता खो चुके हैं. थोड़ा-बहुत दम नये मल्टीप्लैक्सों में दिखता तो है मगर वहां भी जब तक फिल्म का दमखम मेरे समय और टिकटों की कीमत पर भारी नहीं पड़ता अपन उस ओर रूख नहीं करते.