जेठ की उमस भरी दुपहरी बेचैन-सी कजरी हाय रे, बनाती तू अमीरों के महले-दूमहले झोपड़ी मयस्सर न तुझे रे कजरी पेड़ पर टांगा है पुरानी धोती का पालना जिस पर झूलता है तेरा लालना सिर पर गारे की तगाड़ी संभाले एक हाथ दूसरे हाथ में है मलिन चीथड़े का पल्लू क्या संभाले वो एक में है उसके भूखे बच्चे की रोटी दूसरे हाथ में अस्मिता है सिमटी करती वो परवाह किसकी देता उसे क्या जमाना भूखे गिद्ध-सी नजरे और हवस का नजराना जीतती है मां, हारती यौवना नहीं वो सिर्फ यौवना,एक मां भी है जिसे पूजता सारा जमाना
सपनों के शहर में हक़ीकत से जद्दोजहद