Tuesday, June 19, 2007

मुम्बई ब्लॉगर मीट और बची हुई कलेजी

प्रमोद, संजय और अभय बाज़ार में हुई मारामारी के बीच मुम्बई ब्लॉगर मीट के भी खूब चर्चे रहे। वैसे तो सबने इस मीट को तेल-मसाला डालकर, छौंक-बघार लगाकर मजे से पकाया, खाया-खिलाया। बिना किसी परेशानी के इस मीट को लोग पचा भी गये… जो पचने से रह गया उसे अब तक तो सब संडास के भी हवाले कर चुके होंगे। अब आप कहेंगे कि जब सब कुछ हो चुका तो मैं मटियाने की जगह फिर से उस मीट को लेकर क्यों बैठ गया। अरे भैया, वो इसलिए कि जब मीट पक रहा था तभी मैंने कड़ाही में से कलेजी निकालकर कटोरी में डालकर फ्रीज में छूपा दिया था। आइये उस कलेजी का स्वाद चखें…

बहुत दिनों तक चिट्ठाकारी की दुनिया में अंग्रेजन के इ दहेजुआ नगरी मुम्बई का झंडा उठाये-उठाये हमरा हाथ टटा गया था… बड़ा सकुन मिला जब हमरी कठपिनसिन की जगह प्रमोद भाई और अभय भाई जैसों की शानदार कलम ने ली। लगा जैसा धर्मवीर भारती और राजेन्द्र माथुर मुम्बई की प्रतिष्ठा बचाने मैदान में आ गये हों। हमरी खुशी को तो अभी अंधेरी लोकल की जगह विरार फास्ट की सवारी करनी थी। पता चला कि रफी साहब ने युनुस भाई का रूप धरा है और धीरूभाई की आत्मा अपने कमल शर्माजी के भीतर आ घूसी है।

बड़ी तमन्ना थी इन महानुभवों से मिलने की, मगर दोष मुम्बई की आपाधापी के मथ्थे… इस हाई-प्रोफाइट बैठक से पहले तक सिर्फ धीरू भाई से ही मिल पाया था। वो भी अपने रवि भाई रतलाम वाले की कृपा से। बाकियों से मुलाकात कराने का श्रेय इस बार भी एक गैर-मुम्बइया को ही जाता है। धन्यवाद संजय भाई!

संजय और मैं एक बात तो है हम मुम्बई वालों की, भले हम आपस में कम मिल पाते हों मगर कभी जो मेल-मिलाप की थोड़ी भी गुंजाइश बनती है तो झट से लपकते हैं। इस बार ब्लॉगर मीट ने भी यही साबित किया। मौका तो हमने लपक लिया मगर जब सामना हुआ तो वो बगल में 15 मिनट तक बैठे रहे और हम पहचानने से चूक गये। ये किस्सा तो आप संजय भाई के शब्दों में ही पढ़ें तो ज्यादा मज़ा आयेगा। मगर जब दिमाग की बत्ती जली तो लगा जैसे बरसों पहले बिछड़े भाई मिलें हों। इरादा था संजय भाई को कम-से-कम एक रात अपने घर रोकने का… उन्हें बिहारी लिट्टीचोखा खिलाने का। भाई की व्यवसायिक मजबूरियां आड़े आ रहीं थीं… तय हो गया कि रात सवा नौ बजे अहमदाबाद जाने वाली गाड़ी के प्लेटफार्म छोड़ने से पहले इस भरत मिलाप को खत्म होना ही होगा।

तीन बजे संजय भाई से मेरी मुलाकात हुई… उन्हें दो व्यवसायिक बैठक भी निपटानी थी। इस दोनों बैठकों के खत्म होने तक घड़ी का कांटा शाम के 5.30 बजा चुका था। संजय मायुस हो गये कि अब बाकियों से मुलाकात नहीं हो पायेगी। मैंने एक कोशिश करनी चाही… अभय भाई को फोन लगाया गया और तय हुआ कि एक संक्षित्प्त मुलाकात की संभावना का दोहन किया जाये। दूरी, ट्रैफिक और सवा नौ बजे की ट्रेन के बीच तालमेल बिठाने की जिम्मेदारी मेरी थी… सारा गणित लगाने के बाद मैंने भी अपनी और मुम्बई की इज्जत दाव पर लगा दी। मैं संजय को लेकर अभय भाई के आशियाने की ओर कूच कर गया। अभयजी ने फोन पर कहा था कि युनुस और प्रमोदजी को भी जुटाने की वे कोशिश कर रहे हैं… हालांकि उनके समय से पहुंच पाने की संभावना कम ही दीख रही थी। आपाधापी में संजय से इस संभावना की चर्चा करने से मैं चूक गया। ऑटो रिक्शा में मौका मिला भी तो दूसरी तमाम बातें हुईं मगर अजदक अभी भी फोकस में नहीं था। ट्रैफिक का पीक आवर और संजय भाई को समय पर ट्रेन पकड़वाने के विचार ने मेरे दिमाग का कुछ ज्यादा ही हिस्सा घेर रखा था।

अभय भाई के इलाके के में तो हम पहुंच चुके थे मगर यहां टैफिक का जो हाल था वो हमारा प्रोग्राम चौपट कर सकता था। मैंने संजय से मेहमान होने की हैसियत छीन ली और उनसे रिक्शे से उतर जाने को कहा। बाकी की दूरी दोनों ने पैदल ही नाप दी। माफ करना संजय भाई मेरे पास कोई चारा नहीं था। उमस से दोनों के बुरे हाल थे… घड़ी की सुइयां सात बजाने को थीं… मगर अब हम अभयजी के दरवाजे पर थे। घंटी बजी तो एक साधु टाइप आदमी ने दरवाजा खोला… पहले तो गलत पते पर पहुंचने का अंदेशा हुआ मगर उस साधु के चेहरे पर तैर रहे आथित्य भाव के सामने अंदेशा पानी पर लकीर साबित हुआ।

भीतर आने पर देखा कि दीवान पर एक बड़ी-सी काया ने खासी जगह घेर रखी थी। एक नज़र में पहचाने जाने वाली चीज ये भी नहीं थे… वैसे भी जब अपने ब्लॉग पर फोटू चिपकाकर भी मैं और संजय भाई अगल-बगल होते हुई भी 15 मिनट तक अनजान बने रहे तो भला उन्हें क्या कहा जाये जिन्होंने अपनी छवि के लिए हमारे दिमाग पर भरोसा करने का जोखिम लिया हो। अरे जनाब ये अज़दक वाले प्रमोद सिंह थे। मेरे भोथरे दिमाग ने उनको अब तक महज 35-36 का मान रखा था वो तो पूरे 46 के निकले। पता चला कि युनुस भी घर से इधर की ओर निकल चुके हैं।

प्रमोद सिंह अब तक ये साफ हो चुका था कि रियालिटी और वर्चुअल दो अलग शब्द क्यों हैं? खैर, मेरे धर्मवीर भारती और राजेन्द्र माथुर मुझे अच्छे लगे। मज़ा तो तब आया जब अज़दक को किसी दिल्ली वाले की जागीर समझने वाले संजय भाई को यह जानकर तब घोर आश्चर्य हुआ कि जागीरदार मुम्बइया है और अभी ठीक उनके सामने बैठा है। साफगोई पसंद संजय ने झट से अज़दक के क्लिष्ठ होने की शिकायत कर दी… अज़दक का मतलब भी पूछा। प्रमोदजी ने अज़दक के बारे में बताया कि यह शब्द उन्होंने एक मशहूर नाटक के एक चर्चित चरित्र के नाम से लिया है। क्लिष्ठ होने के बारे में उनकी सफाई थी कि महानगरीय जीवन इतना घालमेल भरा हो चुका है कि इस तरह की शब्दावली और शैली स्वाभाविक है। हालांकि उन्होंने यह दावा भी किया कि यदि थोड़ा संयम रख कर पढ़ा जाय तो उनके लेखन में काफी रस है… मुझे उनके दावे में सच्चाई दीखती है। देख लीजिये प्रमोद भाई, अभी मैंने दांत नहीं निपोरा है और न ही आपकी टांग खींची है… बस जो सच लगा वह बक दिया।

अभयजी ने पहिले ही बता दिया था कि भाभीजी घर पर नहीं है लिहाजा हमें उनके हाथ की ही चाय पीने पड़ेगी… मगर अभी वे वादे से मुकर गये और हमें चाय नहीं पिलाई। नाराज़ न हो भई… बड़े प्यारे इनसान है वो। मौसम की मिजाज को देखते हुई उन्होंने हमारे सामने चाय के बदले शरबत पेश की। गला तर हुआ हमारा… ।युनुस भाई की हाज़िरी अब तक नहीं लगी थी मगर घड़ी के कांटें को ये बात कहां मालूम थी। मन मसोसकर निकला तय हुआ लेकिन इससे पहिले इस शिखर बैठक के कुछ सबूत जुटाये गये यानी जल्दी-जल्दी एक-दूसरे की तस्वीरें उतारी गई… फिर झोरा-बोरा समेटा गया। अभी बिंल्डिंग से बाहर निकले ही थे कि अहो भाग्य हमारे… मेरे रफी साहब यानी युनुस मियां की सवारी बस पधारी ही थी। समय तो था नहीं संजय भाई के पास लंबी बातचीत के लिए… मगर न से तो कुछ भला।

संजय, अभय और मैंसबने संजय को विदा कहा… मैं उनके साथ गोरेगांव स्टेशन तक आया। उन्हें समय रहते लोकल पर बैठाकर अंधेरी स्टेशन की ओर रवाना किया। उन्हें छोड़कर जब वापस अभय भाई के घर लौटा… देखता हूं कि युनुस गीत-संगीत के बारे में कुछ मीठी बातें कर रहे है। बिना कुछ बोले मैं भी उनकी बातों का रस लेने लगा। ये दौर भी खासा चला। अंतहीन होते इस दौर में प्रमोदजी ने पंडित अभयानंद निर्मल के बारे में एक राज़ खोला कि पंडितजी बिना नागा किये रात के दस बजे बिस्तर में घुस जाते हैं। जानकर सुखद आश्चर्य हुआ। बैठक को विराम देने से पहिले अभयजी ने अपना वादा पूरा किया… अपने हाथों से हमारे लिए चाय बनायी। इस बीच बाहर कुछ देर हुई बारिस ने मौसम सुहाना बना दिया था। अब तक रात के लगभग ग्यारह बज चुके थे और अभयजी भी अपने नियम से थोड़ा चूक चुके थे। प्रमोदजी और युनुस भाई अपनी फटफटिया खुद हांकने वाले थे मगर हम तो बड़े आदमी ठहरे… बिहार के ठाकुर जो हैं, फटफटिया के लिए भी ड्राइवर रखते हैं। छोटा भाई अपनी शुटिंग से लौट रहा था रास्ते में मुझे लेने आ पहुंचा। उसके साथ हम घर को रवाना हुये… कुल मिलाकर इस मीट का स्वाद मुझे खुब भाया।

Tuesday, May 08, 2007

पॉडभारती यानी अपनी बोली में अपनी बात

पॉडपत्रिका पॉडभारती का पहला अंक जारी कर दिया गया है। कार्यक्रम का संचालन किया है देबाशीष चक्रवर्ती ने और परिकल्पना है देबाशीष और शशि सिंह की।

इस प्रथम अंक में आप सुनेंगे।

हिन्दी चिट्ठाकारी ने अप्रेल 2007 में चार साल पूरे किये हैं। ये फासला कोई खास तो नहीं पर कई लोग इसी बिना पर पितृपुरुष और पितामह कहलाये जाने लगे हैं और अखबारों में छपने लगे हैं। पॉडभारती के लिये चिट्ठाकारी के इस छोटे सफर का अवलोकन कर रहे हैं लोकप्रिय चिट्ठाकार अनूप शुक्ला
गूगल के हिन्दी ट्रांसलिटरेशन टूल के प्रवेश से हिन्दी चिट्ठाकारी को एक नया आयाम मिला है। इस टूल के बारे में और जानकारी देंगे टेकगुरु रविशंकर श्रीवास्तव

मोहल्ला हिन्दी का एक नया पर चर्चित ब्लॉग है। यहाँ इरफान के हवाले से लिखे एक लेख ने ऐसा हंगामा बरपा किया कि हिन्दी चिट्ठाजगत ही ध्रुवों में बंट गया। बहस वाया सांप्रदायिकता लानत मलानत और एक दूसरे के गिरेबान तक जा पहूंची। मुहल्ला पर अविनाश के माफ़ीनामे तक से मामला अब तक ठंडा नहीं पड़ा। इसी संवेदनशील विषय पर सुनिये पॉडभारती के शशि सिंह की खास रपट।
आपको हमारा ये प्रयास कैसा लगा, हमें टिप्पणी द्वारा या podbharti at gmail.com पर ईमेल कर लिखें। आप चाहें तो हमें आडियो के रूप में भी अपनी प्रतिक्रिया भेज सकते हैं।

यही नहीं पॉडभारती के आगामी अंकों में आप भी शामिल हो सकते हैं। तो बिना हिचक अपने आईडियाज़ दें और सुनते रहें पॉडभारती।

Monday, January 15, 2007

गुरू के गुरू मनिरत्नम

कहीं पढ़ा था कि फिल्म गुरू के प्रीमियर पर जुनियर बच्चन का अभिनय देख बिग बी की आंखें नम हो गई. हो भी क्यों न? किसी भी बेटे की तरक्की पर हर पिता इसी तरह तो खुशी मनाते हैं. गुरू फिल्म में छोटे बच्चन वाकई बड़े हो गये दीखते हैं. अमिताभ बच्चन के बेटे होने के नाते अभिषेक की झोली हमेशा फिल्मों से भरी रही लेकिन वे एक बेहतर अभिनेता भी हैं इसकी झलक मनिरत्नम की ही फिल्म युवा में देखने को मिली थी. मनिरत्नम ने युवा फिल्म में अभिषेक के भीतर अभिनय का जो पौधा लगाया था गुरू तक वो एक बरगद का रूप ले चुका है.

इस फिल्म में अभिषेक ने क्या कमाल का अभिनय किया है. यूं तो इस फिल्म में बहुत कुछ है देखने को लेकिन अगर किसी एक चीज के लिए यह फिल्म देखनी हो तो बेशक़ वो बात अभिषेक का अभिनय ही है. फिर भी इसका सारा श्रेय मैं अभिषेक को नहीं दूंगा. अगर दर्शक भूले न हों तो कुछ दिनों पहले ही धूम 2 में इसी अभिषेक पर ऋतिक बहुत भारी पड़े थे. बात साफ है श्रेय निर्देशक मनिरत्नम के सिर. मनिरत्नम हमेशा से ही मुख्यधारा में घुसकर सार्थक फिल्में बनाते रहे हैं. राजकपूर की तरह समसामयिक सामाजिक मुद्दों को अपनी फिल्मों की विषयवस्तु बनाने वाले मणि की रोज़ा, बाम्बे, दिल से, युवा जैसी फिल्में किसे याद नहीं? फिल्म गुरू में भी उन्होंने एक बड़ा प्रसांगिक मुद्दा उठाया है. एक मामूली गंवई गुरुकांत देसाई (अभिषेक बच्चन) का अपने सपने और उसे पूरा करने के जुनून के बूते देश का सबसे बड़ा उद्योगपति बनने की कहानी के माध्यम से मणिरत्नम ने उदारीकरण के दौर में बदलते भारत की तस्वीर पेश करने की कोशिश की है. देश-विदेश के अर्थशास्त्री जहां आंकड़ों के माध्यम से भारत की तरक्की का हिसाब समझा रहे हैं वहीं फिल्मकार ने इसके पीछे के समाजशास्त्र को समझते-समझाते हुए देश के विकास और आम आदमी की क्षमताओं पर अपना विश्वास जताया है.

ये तो हुई अभिषेक के अभिनय और मणि के विजन की बात. इस फिल्म के दूसरे पहलू पर भी गौर किया जाय तो गुरू एक बेहतरीन फिल्म साबित होती है. वैसे भी बेहतर कप्तान उसे ही माना जाता है जो अपनी टीम को बेहतर काम के लिए प्रेरित कर सके. मणिरत्नम एक बेहतर कप्तान हैं यह बात फिल्म के लगभग हर विभाग के प्रदर्शन से जाहिर होता है. वो चाहे ए आर रहमान का संगीत हो या गुलजार के गीत, राजीव मेनन की सिनेटोग्राफी हो या श्रीकर प्रसाद की एडिटिंग. सबने अपना बेहतर देने की कामयाब कोशिश की है. मणिरत्नम के स्क्रीनप्ले को संवाद करने लायक बनाने में लेखक विजय कृष्ण आचार्य ने भी खूबसूरती से शब्दों का चयन किया है. बी और सी ग्रेड की फिल्मों में व्यस्त रहने के बावजुद भी क्यों लोग मिठुन चक्रवर्ती को हमेशा ए ग्रेड का मानते हैं यह गुरू में उनका प्रदर्शन देखकर सहज ही समझा जा सकता है. मुख्यधारा में इसे दादा की जोरदार वापसी का आगाज़ माना जाना चाहिये. ऐश्वर्य राय भी अच्छी लगी है. दक्षिण में मणि की खास पसंद माधवन के लिए इस फिल्म करने को कुछ खास तो नहीं था फिर भी जहां भी मौका मिला, प्रभावित किया है. एक अपाहिज की भूमिका विद्या बालन ने भी भी अपनी क्षमता का परिचय दिया है.

कुल मिलाकर मैं यही कर सकता हूं कि गुरू से एक मुलाकात कर ही लेनी चाहिये.

Wednesday, January 03, 2007

मिश्री की डली: मैथिली

अब तक मैंने आपको भोजपुरी लोकसंगीत सुनाया. आज आपको सुनाता हूं दुनिया की मधुरतम भाषाओं में से एक मैथिली के कुछ लोकगीत. इन लोकगीतों का आनंद लीजिये और शुक्रिया कहिये बीबीसी हिंदी की टीम को जिन्होंने इस विषय पर आज सवेरे एक विशेष कार्यक्रम प्रस्तुत किया. यह ऑडियो क्लिप उसी कार्यक्रम का हिस्सा है. मिश्री की डली