ईमानदार कोशिशें हमेशा रंग लाती है. इसकी ताज़ा मिसाल है अपनी पीढ़ी में सबसे प्रतिभाशाली हिन्दुस्तानी पत्रकार राजदीप सरदेसाई का नया समाचार चैनल सीएनएन-आईबीएन. इस चैनल के टेस्ट सिग्नल की शुरुआत हो गई है और संभवत जनवरी के पहले सप्ताह से यह विधिवत मैदान में होगा.
अगर आप पहली नज़र के प्यार पर यकीन करते हैं तो मैं कहना चाहूंगा कि कल रात पहली मुलाकात में ही मुझे सीएनएन-आईबीएन से प्यार हो गया. वैसे तो मैं खुद भी पत्रकार रहा हूं लेकिन इस बहुचर्चित और बहुप्रतिक्षित चैनल के सामने कल मैं एक आम दर्शक के रूप में बैठा था. मेरा अनुभव कहता है कि यह चैनल भीड़ से बिलकुल अलग है. राजदीप के आईबीएन सेना का हर सिपाही अपना बेस्ट देने की कामयाब कोशिश कर रहा था. सबसे मजेदार बात तो मुझे यह लगी कि इनमें से कुछ सिपाही जब दूसरी सेनाओं में थे तब वे इतने योग्य कभी नहीं लगे. इस बात के लिए मुझे एक बार फिर राजदीप के नेतृत्व की तारीफ करनी पड़ेगी.
कल तकरीबन ढाई घंटे तक मैंने इनका प्रसारण देखा, न्यूज़ ब्रॉडकास्ट के हर क्षेत्र में यह चैनल नये मानक तय करता मालूम पड़ता है. सही मायने में इस चैनल की शुरुआत के साथ भारत में न्यूज़ ब्रॉडकास्ट बिजनेस परिपक्वता के साथ दूसरे चरण में प्रवेश कर रहा है जहां पहले चरण के फिसड्डियों के लिए कोई जगह नहीं होगी.
चैनल के अपने एक प्रोमो में राजदीप ने ख़बरों के बमरूपी ताकत के सही इस्तेमाल का भरोसा दिलाया है. कभी एनडीटीवी के डॉ. प्रणव रॉय के सेनापति रहा यह योद्धा अगर इस भरोसे पर खरा उतरता है तो फिर उसके लिए अनंत ही सीमाएं होंगी. लेकिन इससे पहले राजदीप के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती होगी वह है आईबीएन का हिंदी संस्करण लाना और उसे सफल बनाना. चूंकि वे अंग्रेजी में खुद को सहज महसूस करते हैं इसलिए उनपर इस बात का दबाव होगा की वे हिंदी में भी बेहतर करके बाताएं. वैसे मुझे पूरा यकीन है कि वे ऐसा कर पाने में कामयाब होगें.
मेरी शुभकामनाएं राजदीप और उनकी पूरी टीम के साथ है.
Wednesday, December 21, 2005
Sunday, December 18, 2005
सवेरा होगा
कुछ दूर, नहीं बहुत पास
कुछ है, कुछ है वहां
एक आकृति कुछ धुंधली-सी
इधर ही आती
नहीं, मैं ही चलूं वहां
देखूं तो क्या वही है
जिसकी है तलाश मुझे
अरे! यह घुप अंधेरा कहां से आया
कहां गई वो
शुरू फिर वही तलाश
जरूर कोई बात है
तभी तो आई ये अमावस-सी रात है
शायद मुझे रोशनी की तलाश है
वह आकृति नहीं भटकाव था
डगमगाया तभी तो मेरा पांव था
होगी एक नई सुबह
न आकृति होगी... न अंधेरा होगा...
सिर्फ सवेरा होगा...
कुछ है, कुछ है वहां
एक आकृति कुछ धुंधली-सी
इधर ही आती
नहीं, मैं ही चलूं वहां
देखूं तो क्या वही है
जिसकी है तलाश मुझे
अरे! यह घुप अंधेरा कहां से आया
कहां गई वो
शुरू फिर वही तलाश
जरूर कोई बात है
तभी तो आई ये अमावस-सी रात है
शायद मुझे रोशनी की तलाश है
वह आकृति नहीं भटकाव था
डगमगाया तभी तो मेरा पांव था
होगी एक नई सुबह
न आकृति होगी... न अंधेरा होगा...
सिर्फ सवेरा होगा...
Wednesday, December 14, 2005
महाराष्ट्र और बिहार दोनों भारत में ही हैं
विश्वनाथ सचदेव
लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार और नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक हैं.
तीस-चालीस साल पुरानी हो चुकी यह बात। तब मैं नागपुर विश्वविद्यालय में पढ़ता था। जिस हॉस्टल में मैं रहता था, उसमें कई राज्यों के विद्यार्थी थे। सवेरे सबको जल्दी होती थी। गुसलखाने में रोज लाइन लगती थी। गर्म पानी के लिए सिर्फ एक गीजर था। अक्सर झड़प भी हो जाती थी। पर वह झड़प वहीं तक सीमित होती थी। नहा-धोकर फिर सब साथ हो जाते थे। किसी को किसी की 'दादागिरी' से शिकायत नहीं रहती थी। चालीस साल पुरानी ये बातें मुझे मुम्बई के जे.जे. अस्पताल में डॉक्टरी पढ़ रहे विद्यार्थियों के संदर्भ में याद आ रही हैं। हाल ही में यहां भी गर्म पानी पर विवाद हो गया था। पहले भी होता होगा ऐसा विवाद, पर इस बार मामला तूल पकड़ गया।
सुना है, कुछ विद्यार्थी फरियाद लेकर शिवसेना के बागी नेता राज ठाकरे के पास जा पहुंचे। उन्हें शिकायत थी कि बाहरी राज्यों के, खासकर बिहार के, विद्यार्थी झगड़ा करते हैं। राज को इन दिनों मुद्दों की जरूरत है। वे तत्काल हस्तक्षेप के लिए तैयार हो गए। राज के प्रतिद्वंद्वी उद्धव को भी भनक लगी। मराठी माणूस का नारा लगाते हुए उनके सहयोगी राज से पहले ही 'मदद' के लिए वहां जा पहुंचे। बीजेपी को भी लगा, स्थिति का राजनीतिक फायदा उठाया जा सकता है, सो प्रमोद महाजन ने घोषणा कर दी कि बिहार से आए विद्यार्थियों को 'दादागिरी नहीं करनी चाहिए'। उन्होंने इस संदर्भ में बिहारियों को अफ्रीकियों के साथ भी जोड़ दिया। कांग्रेस में नए-नए शामिल हुए पूर्व शिवसैनिक संजय निरुपम भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, सो उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन किया। महाजन को लताड़ा। बिहार के नए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भला कैसे चुप रहते। उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को संदेश भेजा- बिहारी विद्यार्थियों की रक्षा करो। इस बीच पुलिस ने कुछ उपद्रवी विद्यार्थियों को गिरफ्तार कर लिया था।
अब सवाल यह उठता है कि एक छात्रावास में हुए मामूली विवाद ने यह अखिल भारतीय आकार कैसे ग्रहण कर लिया? और सवाल यह भी है कि चालीस साल पहले ऐसे विवाद अपने आप क्यों सुलझ जाते थे? इन प्रश्नों का एक सीधा सा उत्तर तो यह है कि तब शिवसेना नहीं थी। ऐसा नहीं है कि तब क्षेत्रीयता की बात नहीं होती थी। भूमिपुत्रों के अधिकारों की मांग भी होने लगी थी। लेकिन तब शायद राजनीतिक दलों के सामने मुद्दों का ऐसा अकाल नहीं था, जैसा आज है। तब मुद्दे उठाए जाते थे, अब मुद्दे बनाए जाते हैं। मैं जब नागपुर में पढ़ता था, उसके दो-तीन साल बाद ही शिवसेना का गठन हो गया था। परप्रांतीयों की बात भी करने लगी थी तब वह। लेकिन तब शिवसेना एक गैरराजनीतिक दल थी। तब मराठी माणूस के हितों की बात होती थी, अब मराठी माणूस के नाम पर राजनीति होती है। इसीलिए जे.जे. अस्पताल के हॉस्टल में उठा छोटा सा विवाद एक तथाकथित राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। शिवसेना, बीजेपी, कांग्रेस सब इसे भुनाने की कोशिश में लग गए हैं। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सचाई है कि उद्देश्य राजनीतिक स्वार्थों को साधना है। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह भी है कि विद्यार्थियों को मराठी या बिहारी या पंजाबी के रूप में देखा जा रहा है। देश के हर नागरिक को एक भारतीय के रूप में कब स्वीकार करेंगे हम?
जे.जे. अस्पताल के विद्यार्थियों का विवाद सामने आते ही यह कहा गया कि बिहार के विद्यार्थियों ने हॉस्टल में लगे 'जय महाराष्ट्र' के पोस्टरों को फाड़ कर 'जय बिहार' के पोस्टर लगाए। यदि ऐसा हुआ है तो यह गलत है, लेकिन सवाल यह उठता है कि हॉस्टल में जय महाराष्ट्र के पोस्टर लगाने की जरूरत क्यों समझी गई? महाराष्ट्र में रहने वाले हर व्यक्ति का संकल्प जय महाराष्ट्र होना चाहिए। जैसे जयहिंद हम सबका नारा है, वैसे ही जय महाराष्ट्र भी हम सबका है। न इसका अपमान होना चाहिए, न इस भावना को कम आंका जाना चाहिए। लेकिन यदि इस आशय के पोस्टर मुम्बई में रहने वालों के बीच दीवारें उठाते हैं तो कहीं जरूर कुछ गड़बड़ है। आज जरूरत इस गड़बड़ पर उंगली रखने की है। जय महाराष्ट्र और जय बिहार में कहीं कोई विरोध नहीं होना चाहिए। दोनों की जय में ही भारत की जय निहित है। इसलिए यह कामना राजनीति का मोहरा नहीं बननी चाहिए।
यह एक संयोग हो सकता है कि जब मुम्बई में बिहारी विद्यार्थियों को विवाद का मुद्दा बनाया जा रहा था, तभी असम में एक और विद्यार्थी सेना बन रही थी- गैर असमियों का विरोध करने के लिए। यह कोई छुपा रहस्य नहीं कि असम में गैर असमियों के विरुद्ध आंदोलन कुल मिलाकर राजनीतिक स्वार्थों की लड़ाई ही है। महाराष्ट्र में भी भूमिपुत्रों के हितों की लड़ाई राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने का माध्यम ही बनी। वोट बैंक की इस राजनीति से कुछ व्यक्तियों-दलों को भले ही लाभ होता हो, पर देश घाटे में ही रहता है। बहुत पुरानी नहीं हुई है वह बात, जब कल्याण स्टेशन पर बिहार, यूपी आदि से नौकरी की तलाश में आए युवाओं को पीटा गया था। वह घटना भारतीयता के गाल पर एक तमाचा थी। तब राजनीतिक ताकत बढ़ाने की कोशिश हुई थी, अब राजनीतिक ताकत बनाने की कोशिश हो रही है। इस बात का ध्यान कोई नहीं रखना चाहता कि इस कोशिश में देश की ताकत कमजोर हो रही है। हमारे राजनेताओं और दलों को पूरा अधिकार है अपनी-अपनी ताकत बनाने-बढ़ाने का। लेकिन देश को कमजोर बनाने का अधिकार किसी को नहीं है। महाराष्ट्र या बिहार या असम की जय तभी हो सकती है, जब देश की जय हो। इसलिए देश का हित सर्वोपरि है। जाने-अनजाने इस हित के विरुद्ध जो भी कदम उठता है, वह अपराध है।
नहाने के लिए गर्म पानी के नाम पर शुरू हुए छोटे से विवाद में राजनीतिक स्वार्थों को साधने की संभावनाएं तलाशने वाली मानसिकता के खिलाफ एक अभियान की आवश्यकता है। और इस अभियान का पहला कदम होगा राजनेताओं से यह कहना कि कृपया हमें अपनी राजनीति का मोहरा न बनाइए। कृपया अपने स्वार्थों के लिए नहीं, देश के हित के लिए राजनीति कीजिए।
(नवभारत टाइम्स से साभार)
लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार और नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक हैं.
तीस-चालीस साल पुरानी हो चुकी यह बात। तब मैं नागपुर विश्वविद्यालय में पढ़ता था। जिस हॉस्टल में मैं रहता था, उसमें कई राज्यों के विद्यार्थी थे। सवेरे सबको जल्दी होती थी। गुसलखाने में रोज लाइन लगती थी। गर्म पानी के लिए सिर्फ एक गीजर था। अक्सर झड़प भी हो जाती थी। पर वह झड़प वहीं तक सीमित होती थी। नहा-धोकर फिर सब साथ हो जाते थे। किसी को किसी की 'दादागिरी' से शिकायत नहीं रहती थी। चालीस साल पुरानी ये बातें मुझे मुम्बई के जे.जे. अस्पताल में डॉक्टरी पढ़ रहे विद्यार्थियों के संदर्भ में याद आ रही हैं। हाल ही में यहां भी गर्म पानी पर विवाद हो गया था। पहले भी होता होगा ऐसा विवाद, पर इस बार मामला तूल पकड़ गया।
सुना है, कुछ विद्यार्थी फरियाद लेकर शिवसेना के बागी नेता राज ठाकरे के पास जा पहुंचे। उन्हें शिकायत थी कि बाहरी राज्यों के, खासकर बिहार के, विद्यार्थी झगड़ा करते हैं। राज को इन दिनों मुद्दों की जरूरत है। वे तत्काल हस्तक्षेप के लिए तैयार हो गए। राज के प्रतिद्वंद्वी उद्धव को भी भनक लगी। मराठी माणूस का नारा लगाते हुए उनके सहयोगी राज से पहले ही 'मदद' के लिए वहां जा पहुंचे। बीजेपी को भी लगा, स्थिति का राजनीतिक फायदा उठाया जा सकता है, सो प्रमोद महाजन ने घोषणा कर दी कि बिहार से आए विद्यार्थियों को 'दादागिरी नहीं करनी चाहिए'। उन्होंने इस संदर्भ में बिहारियों को अफ्रीकियों के साथ भी जोड़ दिया। कांग्रेस में नए-नए शामिल हुए पूर्व शिवसैनिक संजय निरुपम भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, सो उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन किया। महाजन को लताड़ा। बिहार के नए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भला कैसे चुप रहते। उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को संदेश भेजा- बिहारी विद्यार्थियों की रक्षा करो। इस बीच पुलिस ने कुछ उपद्रवी विद्यार्थियों को गिरफ्तार कर लिया था।
अब सवाल यह उठता है कि एक छात्रावास में हुए मामूली विवाद ने यह अखिल भारतीय आकार कैसे ग्रहण कर लिया? और सवाल यह भी है कि चालीस साल पहले ऐसे विवाद अपने आप क्यों सुलझ जाते थे? इन प्रश्नों का एक सीधा सा उत्तर तो यह है कि तब शिवसेना नहीं थी। ऐसा नहीं है कि तब क्षेत्रीयता की बात नहीं होती थी। भूमिपुत्रों के अधिकारों की मांग भी होने लगी थी। लेकिन तब शायद राजनीतिक दलों के सामने मुद्दों का ऐसा अकाल नहीं था, जैसा आज है। तब मुद्दे उठाए जाते थे, अब मुद्दे बनाए जाते हैं। मैं जब नागपुर में पढ़ता था, उसके दो-तीन साल बाद ही शिवसेना का गठन हो गया था। परप्रांतीयों की बात भी करने लगी थी तब वह। लेकिन तब शिवसेना एक गैरराजनीतिक दल थी। तब मराठी माणूस के हितों की बात होती थी, अब मराठी माणूस के नाम पर राजनीति होती है। इसीलिए जे.जे. अस्पताल के हॉस्टल में उठा छोटा सा विवाद एक तथाकथित राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। शिवसेना, बीजेपी, कांग्रेस सब इसे भुनाने की कोशिश में लग गए हैं। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सचाई है कि उद्देश्य राजनीतिक स्वार्थों को साधना है। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह भी है कि विद्यार्थियों को मराठी या बिहारी या पंजाबी के रूप में देखा जा रहा है। देश के हर नागरिक को एक भारतीय के रूप में कब स्वीकार करेंगे हम?
जे.जे. अस्पताल के विद्यार्थियों का विवाद सामने आते ही यह कहा गया कि बिहार के विद्यार्थियों ने हॉस्टल में लगे 'जय महाराष्ट्र' के पोस्टरों को फाड़ कर 'जय बिहार' के पोस्टर लगाए। यदि ऐसा हुआ है तो यह गलत है, लेकिन सवाल यह उठता है कि हॉस्टल में जय महाराष्ट्र के पोस्टर लगाने की जरूरत क्यों समझी गई? महाराष्ट्र में रहने वाले हर व्यक्ति का संकल्प जय महाराष्ट्र होना चाहिए। जैसे जयहिंद हम सबका नारा है, वैसे ही जय महाराष्ट्र भी हम सबका है। न इसका अपमान होना चाहिए, न इस भावना को कम आंका जाना चाहिए। लेकिन यदि इस आशय के पोस्टर मुम्बई में रहने वालों के बीच दीवारें उठाते हैं तो कहीं जरूर कुछ गड़बड़ है। आज जरूरत इस गड़बड़ पर उंगली रखने की है। जय महाराष्ट्र और जय बिहार में कहीं कोई विरोध नहीं होना चाहिए। दोनों की जय में ही भारत की जय निहित है। इसलिए यह कामना राजनीति का मोहरा नहीं बननी चाहिए।
यह एक संयोग हो सकता है कि जब मुम्बई में बिहारी विद्यार्थियों को विवाद का मुद्दा बनाया जा रहा था, तभी असम में एक और विद्यार्थी सेना बन रही थी- गैर असमियों का विरोध करने के लिए। यह कोई छुपा रहस्य नहीं कि असम में गैर असमियों के विरुद्ध आंदोलन कुल मिलाकर राजनीतिक स्वार्थों की लड़ाई ही है। महाराष्ट्र में भी भूमिपुत्रों के हितों की लड़ाई राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने का माध्यम ही बनी। वोट बैंक की इस राजनीति से कुछ व्यक्तियों-दलों को भले ही लाभ होता हो, पर देश घाटे में ही रहता है। बहुत पुरानी नहीं हुई है वह बात, जब कल्याण स्टेशन पर बिहार, यूपी आदि से नौकरी की तलाश में आए युवाओं को पीटा गया था। वह घटना भारतीयता के गाल पर एक तमाचा थी। तब राजनीतिक ताकत बढ़ाने की कोशिश हुई थी, अब राजनीतिक ताकत बनाने की कोशिश हो रही है। इस बात का ध्यान कोई नहीं रखना चाहता कि इस कोशिश में देश की ताकत कमजोर हो रही है। हमारे राजनेताओं और दलों को पूरा अधिकार है अपनी-अपनी ताकत बनाने-बढ़ाने का। लेकिन देश को कमजोर बनाने का अधिकार किसी को नहीं है। महाराष्ट्र या बिहार या असम की जय तभी हो सकती है, जब देश की जय हो। इसलिए देश का हित सर्वोपरि है। जाने-अनजाने इस हित के विरुद्ध जो भी कदम उठता है, वह अपराध है।
नहाने के लिए गर्म पानी के नाम पर शुरू हुए छोटे से विवाद में राजनीतिक स्वार्थों को साधने की संभावनाएं तलाशने वाली मानसिकता के खिलाफ एक अभियान की आवश्यकता है। और इस अभियान का पहला कदम होगा राजनेताओं से यह कहना कि कृपया हमें अपनी राजनीति का मोहरा न बनाइए। कृपया अपने स्वार्थों के लिए नहीं, देश के हित के लिए राजनीति कीजिए।
(नवभारत टाइम्स से साभार)
Thursday, December 01, 2005
अनुगूँज १५ - हम फिल्में क्यों देखते हैं?
हम फिल्में क्यों देखते हैं?जाहिर सी बात है फिल्में बनती हैं इसलिए हम फिल्में देखते हैं. यकीन मानिये अगर फिल्में नहीं बनतीं तो हम कुछ और देखते. मसलन, कठपुतली का नाच, तमाशा, जात्रा, नौटंकी, रामलीला या ऐसा ही कुछ और. खैर सौभाग्य या दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है इसलिए हम वापस फिल्मों की ओर चलते है.
शुरू करते हैं सिनेमाघर में पहली फिल्म देखने से. इस मंदिर में मैंने पहली पूजा स्कूल से निकलने और कॉलेज में दाखिले के पहिले की थी. नाम तो ठीक-ठीक याद नहीं पर फिल्म में हिरोइन अपने अजय देवगन की श्रीमती (तब कुवांरी) काजोल थीं और शायद उनकी भी यह पहली ही फिल्म थी. ( पहली फिल्म देखने में मैंने इतनी देर क्यों की? मुगालते में मत रहिये... शराफत के किस्से आगे हैं.) कोलफील्ड की हमारी कॉलोनी शहर से बीस किलोमीटर दूर थी और हम बच्चों की पूरी दुनिया कॉलोनी तक ही सीमित हुआ करती थी. लिहाजा शहर के सिनेमाघर में यह फिल्म देखना मेरे लिए बड़ा ही साहसिक कदम और नये अनुभवों से भरा था... उस दिन तो मानो खुले आसमान में पहली उड़ान-सा अहसास था.
अब चलिए जरा पीछे के कालखंड में चलकर मेरे फिल्में देखने के कारणों की पड़ताल करते हैं. तकरीबन 1500 घरों की हमारी कॉलोनी में पहला टेलिविजन सन 84 के आखरी महीनों में और हमारे मुहल्ले में उसके कुछ महीने बाद यानी सन 85 में आया. यही से शुरू होता है मेरे फिल्म दर्शक बनने का सिलसिला. हालांकि इससे पहले कॉलोनी के खुले मैदान में 16 एमएम प्रोजेक्टर से साप्ताहिक दिखाई जाने वाली फिल्में देखी थी पर यादें धुंधली है इसलिए उस दौरान देखी गई फिल्मों का दोष घर के बुजूर्गों के मत्थे.
जैसा कि मैंने अपने मुहल्ले में टीवी आने का जिक्र किया है. स्वाभाविक-सी बात है यह एक ऐतिहासिक घटना (मेरे फिल्मची बनने की जड़े यहीं हैं) थी... और मुहल्ले के इस इतिहास के रचयिता थे बच्चों के चहेते तिवारी चचा. बाद में मुहल्ले के पहले रंगीन टीवी और पहले वीसीपी के स्वामित्व का सम्मान भी इन्हीं के खाते में आया. बहरहाल तिवारी चचा अपने घर टीवी आने के ऐतिहासिक आयोजन में हम बच्चों को शामिल करना नहीं भूले. शायद चचा को मालूम था कि हम बच्चे ही इस इतिहास के जीते-जागते पन्ने हैं जिसके माध्यम से जमाने में उनकी कृतित्व को पढ़ा जायेगा. हुआ भी यही, आगे महीनों तक हम बच्चे चचा के शौर्य का यशगान करते रहे. इस मुनादी के लिए चचा हममें बिना नागा किये दूरदर्शन के कार्यक्रमों की आरएसएस फीड डालना नहीं भूलते. घर वालों को भी हमारे टीवी देखने पर कुछ खास ऐतराज नहीं होता था. कारण:- एक तो मुहल्ले का लगभग हर घर तिवारी चचा के शौर्य के प्रभाव में आ चुका था और वह खुद भी दर्शकों में शामिल था, दूजा यह कि घर वालों को कुछ समय के लिए हमारे उधम से छुटकारा मिल जाया करता.
उन दिनों हमारे इतवार खास होने लगे. क्योंकि एक तो इतवार की शाम को टीवी पर फिल्में आती दूसरे सिर्फ इतवार को ही दिन में भी कार्यक्रम प्रसारित होते. हालांकि फिल्मी गीतमाला चित्रहार की वजह से बुधवार और शुक्रवार की भी खासी अहमियत थी. हालांकि शुरूआत में हमारे लिए फिल्म और कृषि दर्शन, चित्रहार और समाचार में ज्यादा अंतर नहीं था. हमारे लिए तो टीवी देखना ही एकमेव ध्येय था. शाम को दूरदर्शन के पट खुलने से लेकर जब तक झपकी न आने लगे तब तक बच्चे चचा के घर डटे रहते. अक्सर हमसे से अधिकतर टांगकर या बहला फुसलाकर घरों को लाये जाते. कभी-कभी तो हम दूरदर्शन के पट बंद होने तक उस पर टकटकी लगाये रहते.
खैर, समय बीतता गया. धीरे-धीरे हमें टीवी के दूसरे कार्यक्रमों और फिल्मों का फर्क समझ में आने लगा. कहने की जरूरत नहीं कि फिल्में हमें ज्यादा आकर्षित कर रही थी. अब तक मेरे घर सहित मुहल्ले के कई घरों में टीवी के एंटिने दिखने लगे थे. लेकिन हमारे तिवारी चचा के घर की रौनक पर मुहल्ले के दूसरे एंटिना फर्क नहीं डाल सके थे. क्योंकि अब उनके टीवी के स्क्रीन पर तस्वीरें रंगीन दिखने लगी थी. मुहल्ले के इतिहास के सूत्रधारों यानी हम बच्चों की अब भी चचा का वफादार बने रहना टीवी (ब्लैक एंड ह्वाइट ही सही) वाले घरों के अभिभावकों को खटकने लगा था. पर अक्सर उनकी झिड़कियों पर चचा का रंगीन टीवी भारी पड़ता. (आज फिल्मों में रंग-संयोजन के प्रति अपने संवेदनशीलता की वजह मैं इसे ही मानता हूं.)
अब उस दौर का आगमन होता है जब फिल्में देखने के लिए उस दूरदर्शन पर निर्भरता कम होती जा रही थी, जिस पर सिर्फ पुरानी फिल्मों की ही चहल थी. वीएचएस क्रांति के इस दौर में के हमारे फिल्म दर्शकत्व को एक नया आयाम मिला और हम नई फिल्में देखने में खुद को सक्षम पाने लगे. इस दौर को विडियो युग कहना सबसे सही होगा. इस दौर में वीसीपी और वीसीआर का स्वामी होना मुहल्ले में किसी सल्तनत के सुल्तान-सी हैसियत दिलाता था. हालांकि मुहल्ले के पहले वीसीपी का मालिक होने का श्रेय भी अपने तिवारी चचा को ही जाता है, मगर तब तक बाज़ार में वीसीपी किराये पर देने का व्यवसाय शुरू हो चुका था. इस व्यवसाय की वजह से चचा की बैठक को किसी और बैठक से कड़ी चुनौती मिलने वाली थी.
यह चुनौती मिली मुहल्ले में एक ऐसे सदस्य के आगमन से जो पुलिस सेवा में थे. इस परिवार के आने से हमारी वानर की ताकत में तो इजाफा हुआ ही साथ ही मुहल्ले के लोगों की फिल्में देखने की आदत में आमूलचूल परिवर्तन हुआ.
हमारे ये नये पड़ोसी बाजार में उपलब्ध सेवाओं के इस्तेमाल से तो परहेज नहीं करते लेकिन पुलिस में थे इसलिए उसकी कीमत चुकाना अपनी शान के खिलाफ समझते. विडियो पर फिल्में दिखाने वालों पर तो ये मानो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे. अब इस तरह के सुविधा से लैस पड़ोसी के मुकाबले अपने तिवारी चचा कहां टिकने वाले थे, लिहाजा अब वो हथियार डाल दिया. इस मामले में ड्राइविंग सीट तो चचा ने छोड़ दी लेकिन बस की सवारी नहीं छोड़ी. आखिर थे तो वो बहुत बड़े फिल्मची. उनके फिल्म प्रेम से प्रेरणा और उनके संरक्षण में हम सब ने अपने पुलिस पड़ोसी के विशेषाधिकारों का इस्तेमाल शुरू कर दिया. पुलिस पड़ोसी के नाम की धौंस पट्टी में इलाके के सभी विडियो पार्लर वाले थे. बस जब भी इशारा होता पार्लर वाले वीसीपी और चार-पांच कैसेट तो देते ही देते अपना रंगीन टीवी भी ठेले पर लदवाकर हमारे मुहल्ले में पहुंचा जाते. इस दौर में हमारे मुहल्ले में विडियो फिल्म प्रदर्शन सार्वजनिक आयोजन का रूप ले चुका था. और जब आयोजन सार्वजनिक हो तो भव्य होना लाजिमी है. पुलिस पड़ोसी के राज में विडियो प्रदर्शन कमरों से निकलकर बाहर खुले में होने लगे और एक-साथ कम-से-कम तीन-चार फिल्मों का प्रदर्शन अनिवार्य हो गया. इस तरह के आयोजनों की नियमितता लगभग साप्ताहिक होती थी. विशेष मौकों पर कभी-कभी यह आयोजन सप्ताह में एकाधिक बार होते. भव्यता की वजह से विडियो लोकप्रियता में टीवी को भी पीछे छोड़ चुका था.
अब तो यह दौर भी बीत चुका है. आज तो देशी के साथ-साथ विदेशी फिल्में देखने के लिए भी कई विकल्प हैं लेकिन टीवी और विडियो के दौर में मैंने फिल्मी भांग इतनी ज्यादा खा ली है कि अब फिल्मों का कोई नशा चढ़ता ही नहीं. अब तो घर में छोटे पर्दे अपने सामने फिल्म के लिए तीन घंटे बैठा सकने की क्षमता खो चुके हैं. थोड़ा-बहुत दम नये मल्टीप्लैक्सों में दिखता तो है मगर वहां भी जब तक फिल्म का दमखम मेरे समय और टिकटों की कीमत पर भारी नहीं पड़ता अपन उस ओर रूख नहीं करते.
Monday, October 24, 2005
चांद बिक गया
अब तो आशिकों की आफ़त आई समझो... ग़लती से भी कहीं माशूका के सामने कह दिया कि 'मेरी जान! तुम कहो तो तुम्हारे लिए चांद तोड़ लाऊं', तो समझो मियां आप तो फंसे.
बच्चों की लोरी से लेकर आशिकों की शायरी तक में चांद की रुमानियत को पाना हसीन ख़्वाब रहा है. लेकिन अब शायद ऐसा न रहे... क्योंकि चांद का काफी हिस्सा बिक गया है. जो बचा है उसकी भी दुकान सजी है. हां यह बात दीगर है कि खरीदने जाओ तो धरती पर अपना घर-द्वार बेचना पड़ जाये.
Sunday, October 23, 2005
हनुमान बने बॉलीवुड के संकटमोचन
अभी-अभी मैं एनिमेशन फिल्म हनुमान देखकर आ रहा हूं. मजा आ गया. फिल्म की पूरी टीम बधाई की पात्र है. ऐसे प्रयासों को देखकर अब यकीन हो चला है कि बॉलीवुड में अभी जिने की तमन्ना बाकी है.
इस फिल्म की तीन बातों के लिए तारीफ करनी होगी:
1. उच्च तकनीक का बेहतर इस्तेमाल
2. पश्चिम की नकल न करके अपने पौराणिक कथावस्तु की क्षमता में यकीन
3. हनुमान के बाल रूप का बेहतर चित्रण
संगीत और संवाद वगैराह भी अच्छे रहे.
कुल मिलाकर हनुमान एक साहसिक प्रयास है जो बॉलीवुड की तरफ से कुछ नया नहीं मिलने की शिकायत करने वालों को जरूर पसंद आयेगा. , पता नहीं बजरंगबली बॉक्स ऑफिस पर अपनी ताकत दिखा पायेंगे या नहीं पर इस फिल्म ने मुझे बेहद प्रभावित किया है. उम्मीद है आपको भी पसंद आयेग़ी. पर एक मिनट रूकिए... भाभीजी और बच्चों को साथ ले जाना मत भूलिएगा.
Sunday, October 09, 2005
नवरात्र माहात्म्य
नवरात्र के महत्व के बारे में दैनिक 'आज' में पूर्व प्रकाशित मेरा आलेख
हिन्दू पंचागके अनुसार आश्विन मासके शुक्ल पक्षकी प्रतिपदा तिथिको नवरात्रिका आरम्भ होता है. शरद ऋतुमें होने के कारण इसे शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है. 'मारकण्डेय पुराण' अध्याय 89 श्लोक 11 में कहा भी गया है कि 'शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी' और 'निर्णयसिन्धु' नामक धार्मिक विवादोंका समाधान करने वाला ग्रंथ भी यही मानता है. परंतु संस्कृतके प्रसिद्ध वैयाकरण नागोजी भट्टने 'वार्षिकी' को वासंती नवरात्र बोधक कहा है. 'निर्णयामृत' और 'समय मयूख' जैसे ग्रंथ भी इसका समर्थन करते हैं.
ऐतिहासिक दृष्टिसे दुर्गापूजाका वर्तमान रूप कमोवेश दो हजार वर्ष पुराना है. षोडश मातृका अर्द्धनारीश्वर और देवीके गलेमें कपालमालाका उल्लेख महाकवि कालिदास कृत 'कुमार संभवम' में भी मिलता है. जिसका समय ईसापूर्व प्रथम शताब्दी है. इस तिथिपर भले ही विवाद हो लेकिन प्रथम-द्वितीय शताब्दीके कुषाण राजा कनिष्कके (या उसके बाद चंद्रगुप्त प्रथमके भी) सिक्कोंपर दुर्गाका वर्तमान रूप मिलता है.
'नवरात्र प्रदीप' में कहा गया है कि यह पूजन नित्य (यानी दैनिक साधना) और काम्य (विशेष कार्यके अनुष्ठान) दोनों ही है. इसी प्रकारसे यह पूजा पर्व और व्रत दोनोंके रूपमें ही रूपमें प्रचलित है. कमलाकार भट्ट अथवा अनन्तदेव जैसे कुछेकको छोड़कर अधिकतर विद्वान इसे सार्वजनिक पूजा मानते हैं जिसे हर जाति-धर्म का व्यक्ति (म्लेच्छ यानी विधर्मी भी) कर सकता है. वैसे इस पर्वको असली सामूहिक सार्वजनिक बनाते हैं पूजा स्थानोंपर लगने वाले मेले ही.
व्रत रूपमें नवरात्रके आरम्भ और अंत की भिन्न-भिन्न सीमाएं बतायी गयी है. 'कलिका पुराण' के आधारपर 'तिथितत्व' नामक ग्रंथ ऐसे 7 भेद का उल्लेख करता है- (1) कृष्ण नवमीसे शुक्ल नवमी तक (2) शुक्ल पक्ष प्रतिपदासे नवमी तक (3) शुक्ल षष्ठीसे नवमी तक (4) शुक्ल सप्तमीसे नवमी तक (5) शुक्ल अष्ठमीसे नवमी तक (6) मात्र शुक्ल अष्टमी (7) मात्र शुक्ल नवमी. चौथे मतका समर्थन 'पुरुषार्थ चिंतामणि', 'कालतत्व विवेचन' और 'चतुर्वर्ग चिंतामणि' जैसे ग्रंथ भी करते हैं. इसीलिए विद्यापति कृत 'दुर्गा भक्ति तरंगिणी' ने देवीके बोधन (जागृत करने) के लिए षष्ठी तिथि तय की है (जब बेलके वृक्ष तले पूजन होता है) और प्राण-प्रतिष्ठाके लिए सप्तमी तिथि. अष्टमीको उपासक दिनमें कुमारी पूजन करते हैं और रातमें जागरण.
दोसे दस वर्षकी कुमारियां क्रमश: कुमारिका, त्रिमुर्त्रि, कल्याणी, रोहिणी, काली, चण्डिका, शांभवी, दुर्गा और सुभद्रा कही गयी हैं जिन्हें नवदुर्गाओंका प्रतीक माना गया है. दुर्गा कवचके अनुसार शैलपुत्री. ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धयात्री ये नवदुर्गाएं हैं. अष्टमीके दिन उपवासका विधान 'कलिका पुराण' (अध्याय 63 श्लोक 16) के अनुसार केवल नि:संतानोंके लिए है. 'लिंगपुराण' सप्तमी, अष्टम, नवमी औअर दशमीके लिए क्रमश: देवीस्थान, पूजन, बलि और होमका विधान करता है. प्रथमाके कलश स्थापनाकी तरह दशमीको निराजन (आरती) और विसर्जन विशेष कर्म है.
'ऋगवेद' प्रथम मंडल सूक्त 162 के श्लोक 21 में चर्चित बलिदानकी व्याख्या रहस्यवादी आध्यात्मिक और तांत्रिक दोनों रूपोंमें हुई है. षायणाचार्यने यज्ञमध्वरमके अनुसार यज्ञको अहिंसक कहा है. 'वाजसनेयी संहिता' (श्लोक 23.16) में यज्ञ पशुकी स्वर्ग प्राप्तिका वर्णन करनेके बाद अगले श्लोक में अग्नि, वायु आदिको यज्ञ पशु कहा गया है. दुसरी ओर 'कालिका पुराण' (श्लोक 71:39), 'मनुस्मृति' (श्लोक 5:61) और 'विष्णु धर्म सूत्र' (श्लोक 51:61) साफ शब्दोंमें पशुवधका तांत्रिक समर्थन करते हैं परंतु घोड़े या हाथीकी बलि वर्जित है.
देवीके विग्रहको लेकर भी पर्याप्त मतांतर है. उनके हाथोंकी संख्या 'वराहपुराण' में 20, देवी भागवतमें 18, हेमाद्रि और विद्यापति द्वारा 8 या 10, विराट पर्व (महाभारत) में युधिष्ठिर द्वारा 4 बतायी गयी है.
हेमाद्रि विरचित ग्रंथ 'चतुर्वर्गचिंतामणि' में षष्ठी तिथिके पूजन श्लोकमें राम द्वारा रावण विजयके लिए इस पूजाको करने का वर्णन है. इसी तरह वासंती नवरात्रको रामनवमी (रामजन्म) से जोड़ना भी इस परम्परा पर वैष्णव प्रभाव ही है.
वैसे मूलत: नवरात्र शैव-शाक्त मतोंसे ही प्रभावित है. जिसका आधार ग्रंथ 'दुर्गाशप्ती' है. 700 श्लोकों और 13 अध्यायोंका यह 'देवी महात्म्य', मारकण्डेय पुराण में 81वें से 93वें अध्याय (कुछ प्रतियों में 78वें से 90वें अध्याय तक) पाया जाता है. इसमें सारे देवताओंके तेजसे देवीकी उत्पति और महिषासुअर वध सहित मधु=कैटभ, चण्ड-मुण्ड, शुम्भ-निषुम्भ, धूम्रलोचन, आदि राक्षसोंके वधका प्रसंग है. वाराहपुराणमें महिषासुर वधका प्रसंग बिल्कुल भिन्न (और बहुत कम प्रचलित) है.
जैसे 'महाभारत' में 'गीता' अपनी विलक्षणताके कारण अलग पुस्तकके रूपमें कई गुणा अधिक प्रचारित है उसी तरह मारकण्डेय पुराणका यह अंश अपने तांत्रिक प्रभावों के कारण अलग और लोकप्रसिद्ध है. दोनोंके ही बारे में एक मत यह भी है कि ये ग्रंथ मूलत: स्वतंत्र थे, बादमें इन्हें बड़े ग्रंथोंने आत्मसात कर लिया हालांकि तुलसीकृत रामचरितमानसमें सुन्दरकाण्डकी स्थिति वैसी ही होकर भी विवादित नहीं है.
सच्चाई चाहे जो भी हो, दुर्गासप्तशतीका वर्तमान रूप मूलपाठ (13 अध्याय और 700 श्लोक) से लगभग दोगुणा है. तंत्रक्रियाके विकासके साथ 'योगरत्नावली' और 'चिदमबर संहिता' ने कीलक, कवच और अर्गलाके तीन स्रोत भी जोड़ दिये गये और फिर दुर्गाद्वात्रिशन्नाममाला, दुर्गाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र, दुर्गासहस्रनाम आदि भी जुड़े. तांत्रिक रहस्यवादमें सूक्त प्रधानिक रहस्य, वैक्तिक रहस्य औअर मूर्तिरहस्य भी जुड़े. प्रत्येक अध्याय के साथ ध्यानके श्लोक जोड़े गये हैं और अन्य अनुष्ठानोंकी तरह नवर्णविधिको भी शामिल किया गया है. विशेष अनुष्ठानोंके लिए 'दुर्गोत्सवविवेक' (शूलपाणि कृत), 'दुर्गार्चन पद्धति' (रघुनंदनकृत), 'दुर्गापूजा प्रयोगतत्व' (संस्कृत साहित्य परिषदका यह प्रकाशन दुर्गार्चन पद्धति का सारांश मात्र है), 'दुर्गाभक्ति तरंगिणी' (विद्यापति कृत), 'नवरात्र प्रदीप'(विनायक अथवा नन्द पंडित कृत), दुर्गात्सव पद्धति (उदय सिंह कृत) आदि ग्रंथ उपलब्ध हैं.
Wednesday, October 05, 2005
अकेली मां ही नहीं अब अकेला बाप भी
कभी-कभी कोई छोटी-सी घटना बड़ी बहस को जन्म दे देती है. पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के एक इन्फ़र्टिलिटी क्लीनिक में रविवार को जन्मे बच्चे अर्जुन ने समाज और कानून के स्तर पर कुछ ऐसी तरह की बहस की शुरुआत की है. (ख़बर यहां पढ़िये)
तकनीक की मदद से मां बनती अकेली महिलाओं पर बहस अभी थमा भी नहीं कि अकेले बाप का मुद्दा हमारे सामने है. अकेली मां बनने के पीछे वजह जो भी गिनाया जाता रहा हो मगर मेरी समझ से असली मकसद महिलाओं द्वारा पुरुष प्रधान समाज को चुनौती देना ही है. ऐसे में एक तलाकशुदा पुरुष द्वारा अकेला बाप बनने का निर्णय लेना कहीं उस चुनौती का जवाब तो नहीं?
एक तरफ तो इस तरह के मातृत्व या पितृत्व सुख में अपने विपरीत लिंगी साथी की भागीदारी को नकारा जा रहा है वहीं कुछ देशों में समलिंगी विवाह (?) को मिल रही मान्यता एक डर पैदा कर रही है. मैं यह सोचने को विवश हो गया हूं कि कहीं समाज की मूलभूत संरचना में ही तो बदलाव नहीं हो रहा है?
Sunday, October 02, 2005
"भोजपुरिया" का पदार्पण
मुम्बई ब्लॉग के माध्यम से यह सूचित करते हुए मुझे अपार हो रहा है कि ब्लॉग जगत में हिंदी की छोटी बहन भोजपुरी को समर्पित एक ब्लॉग "भोजपुरिया" का पदार्पण हो चुका है. संभवत: यह भोजपुरी का पहला ब्लॉग है. "भोजपुरिया" सिर्फ ब्लॉगिंग न होकर पॉडकास्टिंग भी है जिसमें भोजपुरिया को आवाज़ देने की भी कोशिश की गई है. मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि जिस तरह आपने "मुम्बई ब्लॉग" को अपना स्नेह दिया है वैसा ही प्यार "भोजपुरिया" को भी मिलेगा.
धन्यवाद.
धन्यवाद.
Friday, September 30, 2005
दिल गार्डेन-गार्डेन हो गया
भारतीय फुटबॉल में तो कभी कुछ ऐसा नहीं रहा जो हमें आकर्षित करे मगर एशियन फुटबॉल कंफेडरेशन की हिन्दी में जारी ये आधिकारिक वेबसाइट देखकर दिल गार्डेन-गार्डेन हो गया. आप भी देखिये... एशियन फुटबॉल कंफेडरेशन
Sunday, September 18, 2005
वो भीख नहीं मांगता
(आज से मुम्बई ब्लॉग में मैं कहानियों की एक नई श्रृंखला की शुरुआत कर रहा हूं. मेरी कहानियों का नायक तो मुझे मिल गया है लेकिन उसका नामकरण संस्कार होना अभी बाकी है. ब्लॉग बिरादरी से मेरा यह आग्रह है कि मेरी कहानी के नायक के लिए कोई बढ़िया-सा नाम सुझाये. नाम देने के लिए मेरा नायक आप सबका आभारी रहेगा.)
वो भीख नहीं मांगता
अमूमन उसके जैसे लड़के स्टेशनों पर भीख़ ही मांगते हैं मगर वो अंधेरी स्टेशन पर पानी की बोतलें बेचता है. दस रुपये की एक बोतल के पीछे उसे दो रुपये मिल जाते हैं. इससे ज्यादा तो उसके साथी भगवान या अल्लाह के नाम पर कमा लेते हैं... शायद किसी स्वाभिमानी का खून है ये. उसकी उम्र अभी यही कोई नौ-दस होगी मगर बला की फूर्ति है लड़के में. जब से उसे देखा है ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं रह गयी है, उल्टे खुद पर कोफ़्त हो रही है कि अब तक ज़िंदगी से शिकायत ही क्यों थी?
उस दिन सबेरे खचाखच भरी चर्चगेट लोकल में उल्टी तरफ गेट पर खड़ा ललित नारायण मिश्रा से लेकर लालू यादव तक, सभी रेलमंत्रियों को मन-ही-मन कोस रहा था. अंधेरी स्टेशन पर लोकल पहुंची, प्लेटफॉर्म की तरफ वाली गेट पर चढ़ने-उतरने वालों के रेला का इस तरफ से बस अंदाजा ही लगा सकता था. इधर उमसभरी गर्मी और भीड़ से बुरा हाल था.
"बिसलरी ले लो सा'ब... बिसलरी! पानी की बोतल... बिसलरी..."
अचानक लगा जैसे किसी ने अमृत के लिए आवाज़ लगा दी हो. मैंने पलटकर देखा तो वो पानी की बोतल लिए पटरी की दुसरी तरफ वाले प्लेटफार्म से आवाज़ लगा रहा था.
"सा'ब दूं क्या?... एकदम ठंडा है... चील्ड!"
मैंने बोतल के लिए इशारा किया.
"सा'ब बारह रुपये निकाल लो."
ये कहकर वो पानी की बोतल लिए प्लेटफार्म से पटरी पर उतर आया. तभी भीतर खड़े एक सज्जन ने भी एक बोतल की मांग कर डाली.
सुनते ही दूर से ही उसने अपने हाथ वाली बिसलरी की बोतल मेरी तरफ उछाल दी और पैसे लिये बगैर उल्टे पांव प्लेटफार्म पर चढ़ते हुए कहा...
"उनके भी बारह रुपये लेकर रखो... दुसरी बोतल मैं अभी लाता हूं."
ट्रेन स्टेशन पर सिर्फ 30 से 40 सेकंड के लिए ही रुकती है. यह बात उसकी फूर्ति से भी जाहिर थी. लेकिन इस बात का उसे अंदाजा नहीं था कि उसकी तरफ वाले प्लेटफार्म पर इस बीच ही कोई गाड़ी आ जाएगी.
उसके बारह रुपये मेरे पास ही रह गये और हमारी लोकल खुल गई.
क्रमश:
वो भीख नहीं मांगता
अमूमन उसके जैसे लड़के स्टेशनों पर भीख़ ही मांगते हैं मगर वो अंधेरी स्टेशन पर पानी की बोतलें बेचता है. दस रुपये की एक बोतल के पीछे उसे दो रुपये मिल जाते हैं. इससे ज्यादा तो उसके साथी भगवान या अल्लाह के नाम पर कमा लेते हैं... शायद किसी स्वाभिमानी का खून है ये. उसकी उम्र अभी यही कोई नौ-दस होगी मगर बला की फूर्ति है लड़के में. जब से उसे देखा है ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं रह गयी है, उल्टे खुद पर कोफ़्त हो रही है कि अब तक ज़िंदगी से शिकायत ही क्यों थी?
उस दिन सबेरे खचाखच भरी चर्चगेट लोकल में उल्टी तरफ गेट पर खड़ा ललित नारायण मिश्रा से लेकर लालू यादव तक, सभी रेलमंत्रियों को मन-ही-मन कोस रहा था. अंधेरी स्टेशन पर लोकल पहुंची, प्लेटफॉर्म की तरफ वाली गेट पर चढ़ने-उतरने वालों के रेला का इस तरफ से बस अंदाजा ही लगा सकता था. इधर उमसभरी गर्मी और भीड़ से बुरा हाल था.
"बिसलरी ले लो सा'ब... बिसलरी! पानी की बोतल... बिसलरी..."
अचानक लगा जैसे किसी ने अमृत के लिए आवाज़ लगा दी हो. मैंने पलटकर देखा तो वो पानी की बोतल लिए पटरी की दुसरी तरफ वाले प्लेटफार्म से आवाज़ लगा रहा था.
"सा'ब दूं क्या?... एकदम ठंडा है... चील्ड!"
मैंने बोतल के लिए इशारा किया.
"सा'ब बारह रुपये निकाल लो."
ये कहकर वो पानी की बोतल लिए प्लेटफार्म से पटरी पर उतर आया. तभी भीतर खड़े एक सज्जन ने भी एक बोतल की मांग कर डाली.
सुनते ही दूर से ही उसने अपने हाथ वाली बिसलरी की बोतल मेरी तरफ उछाल दी और पैसे लिये बगैर उल्टे पांव प्लेटफार्म पर चढ़ते हुए कहा...
"उनके भी बारह रुपये लेकर रखो... दुसरी बोतल मैं अभी लाता हूं."
ट्रेन स्टेशन पर सिर्फ 30 से 40 सेकंड के लिए ही रुकती है. यह बात उसकी फूर्ति से भी जाहिर थी. लेकिन इस बात का उसे अंदाजा नहीं था कि उसकी तरफ वाले प्लेटफार्म पर इस बीच ही कोई गाड़ी आ जाएगी.
उसके बारह रुपये मेरे पास ही रह गये और हमारी लोकल खुल गई.
क्रमश:
Friday, July 29, 2005
तबाही के मंजर पर मुम्बईया हौसले की जीत
ऐसा मंजर जो कल तक ख़्वाबों की हद में भी नहीं था, आज हकीकत बन हम सब को दहला गया. एक तरफ मुम्बई महानगर सदी की सबसे भयानक बारिश की मार झेल रहा था तो दूसरी तरफ समुद्र के बीच मुम्बई हाई में लपटों का कहर टूट पड़ा. इन दोनों घटनाओं को जब हम एक साथ देखते हैं, तो अपने भीतर गहराई तक पीड़ा का अहसास घर कर जाता है. मुम्बई में 24 घंटों के दौरान लगभग सौ सेंटीमीटर पानी बरस पड़ा. ऐसे समय, जब समन्दर में ज्वार उठा हो, शहर को डूबना ही था.
इस आपदा ने देश की आर्थिक राजधानी को पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर दिया है. जिंदगी को पटरी पर आने में कुछ समय लगेगा और नुकसान के घाव भी धीरे-धीरे ही भर पाएंगे. एक मुम्बईकर होने के नाते इतना तो यकीन है कि मुम्बई बहुत जल्द अपने पुराने रंग में लौट आयेगी. प्रधानमंत्री का मुम्बईकरों के जज्बे को सलाम करना मेरे इस यकीन को बल देता है. सबसे बड़ी बात तो काबिलेगौर है कि बाढ़, बारिश और अंधकार के उन क्षणों में भी मुम्बईकरों ने धीरज नहीं छोड़ा और गुस्से से परहेज किया. इस बात को न सिर्फ मुम्बई के आकाओं बल्कि केंद्र की सरकार द्वारा भी कद्र की जानी चाहिए.
मुम्बई में बारिश की तस्वीरें
इस आपदा ने देश की आर्थिक राजधानी को पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर दिया है. जिंदगी को पटरी पर आने में कुछ समय लगेगा और नुकसान के घाव भी धीरे-धीरे ही भर पाएंगे. एक मुम्बईकर होने के नाते इतना तो यकीन है कि मुम्बई बहुत जल्द अपने पुराने रंग में लौट आयेगी. प्रधानमंत्री का मुम्बईकरों के जज्बे को सलाम करना मेरे इस यकीन को बल देता है. सबसे बड़ी बात तो काबिलेगौर है कि बाढ़, बारिश और अंधकार के उन क्षणों में भी मुम्बईकरों ने धीरज नहीं छोड़ा और गुस्से से परहेज किया. इस बात को न सिर्फ मुम्बई के आकाओं बल्कि केंद्र की सरकार द्वारा भी कद्र की जानी चाहिए.
मुम्बई में बारिश की तस्वीरें
Thursday, July 28, 2005
हिंदी इंटरनेट एक्सप्लोरर
कंप्यूटर सॉफ्टवेयर का विकास अमरीका के सिलिकन वैली से निकलकर अब मध्यप्रदेश के गाँवों में पहुँच गया है. पूरी ख़बर पढ़िये
Tuesday, July 26, 2005
भारी बरसात से मुम्बई में अफरा-तफरी का माहौल
आज मुम्बई में मौसम की सबसे जोरदार बारिश हुई है जो अभी लगातार जारी है. जिससे शहर की व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है. अभी रात के 11.30 बजे भी सड़कों पर है गाड़ियों की लम्बी कतारें और हैरान-परेशान लोग. यहां की जीवन रेखा कहीं जाने वाली लोकल ट्रेनों की रफ्तार भी धीमी पड़ गई है. रफ्तार के इस शहर में मानो सबकुछ थम-सा गया है.
यहां लोग 40-50 किलोमीटर दूर घंटे-डेढ़ घंटे का सफर कर काम करने मध्य और दक्षिण मुम्बई की ओर आते हैं. यूं तो छिटपुट बारिश पिछले दो-तीन दिनों से हो रही है मगर आज दिन की बारिश में सबकुछ अस्त-व्यस्त कर दिया. यहां तक कि कुछ घंटों के लिए फोन सेवाएं भी बुरी तरह बाधित रहीं.
सुबह तक तो लगभग सबकुछ ठीक था. मगर शाम तक कई इलाकों में रेलवे ट्रैक और सड़कों पर पानी भर गया जिससे स्टेशनों पर भारी भीड़ और सड़कों पर गाड़ियों की कतारें दिखने लगी. मेरा घर भी लोअर परेल स्थित मेरे ऑफिस से घंटे भर की दूरी पर है, इसीलिए मैं तो शाम को ही द्फ्तर के पास ही रहने वाले एक दोस्त के घर जा पहुंचा. वहां मीडिया वाले कुछ और दोस्त धमके हुए थे. सबके अलग-अलग सूत्रों से अलग-अलग तरह की ख़बरे मिली. रात को जब फोन सेवाएं बहाल हुईं तो पता चला कि दफ्तर में 250 से 300 लोग फंसे पड़े हैं. इनकी हालत देखने के लिए मैं वापस दफ्तर आ पहुंचा. खैर यहां तो पिकनिक सा माहौल है. मगर बाहर रास्ते पर हालत अब भी बुरी है. जिनके आशियाने हैं वे तो अपने आशियाने तक पहुंचने की कोशिश करते दिखे, मगर वे जिनका ठिकाना फुटपाथ है वो यहां-वहां दुबके पड़े हैं.
मैं तो यह पोस्ट लिखकर दोस्त के घर जा सो जाऊंगा पर सबेरे इस बात पर आश्चर्य नहीं होगा अगर सपने में उन बेघरों के साथ मैं खुद को सड़क पर पाऊं.
यहां लोग 40-50 किलोमीटर दूर घंटे-डेढ़ घंटे का सफर कर काम करने मध्य और दक्षिण मुम्बई की ओर आते हैं. यूं तो छिटपुट बारिश पिछले दो-तीन दिनों से हो रही है मगर आज दिन की बारिश में सबकुछ अस्त-व्यस्त कर दिया. यहां तक कि कुछ घंटों के लिए फोन सेवाएं भी बुरी तरह बाधित रहीं.
सुबह तक तो लगभग सबकुछ ठीक था. मगर शाम तक कई इलाकों में रेलवे ट्रैक और सड़कों पर पानी भर गया जिससे स्टेशनों पर भारी भीड़ और सड़कों पर गाड़ियों की कतारें दिखने लगी. मेरा घर भी लोअर परेल स्थित मेरे ऑफिस से घंटे भर की दूरी पर है, इसीलिए मैं तो शाम को ही द्फ्तर के पास ही रहने वाले एक दोस्त के घर जा पहुंचा. वहां मीडिया वाले कुछ और दोस्त धमके हुए थे. सबके अलग-अलग सूत्रों से अलग-अलग तरह की ख़बरे मिली. रात को जब फोन सेवाएं बहाल हुईं तो पता चला कि दफ्तर में 250 से 300 लोग फंसे पड़े हैं. इनकी हालत देखने के लिए मैं वापस दफ्तर आ पहुंचा. खैर यहां तो पिकनिक सा माहौल है. मगर बाहर रास्ते पर हालत अब भी बुरी है. जिनके आशियाने हैं वे तो अपने आशियाने तक पहुंचने की कोशिश करते दिखे, मगर वे जिनका ठिकाना फुटपाथ है वो यहां-वहां दुबके पड़े हैं.
मैं तो यह पोस्ट लिखकर दोस्त के घर जा सो जाऊंगा पर सबेरे इस बात पर आश्चर्य नहीं होगा अगर सपने में उन बेघरों के साथ मैं खुद को सड़क पर पाऊं.
Thursday, July 21, 2005
डर हमारी जेबों में
प्रमोद कुमार तिवारीजी के उपन्यास 'डर हमारी जेबों में' का अंश पढ़िये. बड़ा खूबसूरत और मार्मिक है यह... वैसे तो उपन्यास कुछ पुराना है लेकिन इस बार कथा, यूके ने इसे इंदु शर्मा-2005 पुरस्कार से सम्मानित करने का फ़ैसला किया है और इसी से यह पुस्तक एक बार फिर प्रासंगिक हो गई है.
उपन्यास के अंश के लिए यहां क्लिक करें.
Wednesday, July 20, 2005
प्रेमकंद बनाम प्रेमचंद
(पिछले आलेख "प्रेमचंद का बॉयोडाटा" के संदर्भ में)
कन्फ्युजियाइये मत स्वामीजी, ई न टाईपो है आउर न ह्युमर है, ई तो हमरा आपन मिस्टेक बुझा रहा है. अभी ठीक किये देते हैं.
वैसे हमको हमरा विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि श्री प्रेमचंदजी अपनी आत्मा हमरा भीतर प्रवेश करवाकर हमरा से ई ग़लती करवाएं हैं. अभी भाया चित्रगुप्तजी हम प्रेमचंदजी से संपर्क करने का कोशिश किया. वहां से एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिये स्पष्टीकरण आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि उ चैनल बाबू के लिए का प्रेमचंद?.. का प्रेमकंद आउर का शकरकंद?... सब धन बाइस पसेरी. इसीलिए प्रेमचंदजी की आत्मा की इच्छा थी कि चैनल बाबू जैसे लोगों को प्रेमकंद या शकरकंद या चाहे जिसका बायोडाटा भिजवाना हो भिजवा दिया जाए. प्रेमचंद की किताबों के बारे में बिल्कुल न बताया जाए वरना जीते जी तो अब नहीं कह सकते, हां मरते जी फिर से मर जाएंगे.
फिर हमने दूबारा निवेदन किया श्री प्रेमचंदजी, इस धरती पर स्वामीजी जैसे लोग भी हैं जो 'प्रेमकंद' के नहीं, 'प्रेमचंद' और उनके साहित्य के रसिक है. निवेदन स्वीकृत हो गया है और अब दुनिया के सामने 'प्रेमकंद' की जगह 'प्रेमचंद' का बायोडाटा पेश कर दिया गया है.
कन्फ्युजियाइये मत स्वामीजी, ई न टाईपो है आउर न ह्युमर है, ई तो हमरा आपन मिस्टेक बुझा रहा है. अभी ठीक किये देते हैं.
वैसे हमको हमरा विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि श्री प्रेमचंदजी अपनी आत्मा हमरा भीतर प्रवेश करवाकर हमरा से ई ग़लती करवाएं हैं. अभी भाया चित्रगुप्तजी हम प्रेमचंदजी से संपर्क करने का कोशिश किया. वहां से एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिये स्पष्टीकरण आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि उ चैनल बाबू के लिए का प्रेमचंद?.. का प्रेमकंद आउर का शकरकंद?... सब धन बाइस पसेरी. इसीलिए प्रेमचंदजी की आत्मा की इच्छा थी कि चैनल बाबू जैसे लोगों को प्रेमकंद या शकरकंद या चाहे जिसका बायोडाटा भिजवाना हो भिजवा दिया जाए. प्रेमचंद की किताबों के बारे में बिल्कुल न बताया जाए वरना जीते जी तो अब नहीं कह सकते, हां मरते जी फिर से मर जाएंगे.
फिर हमने दूबारा निवेदन किया श्री प्रेमचंदजी, इस धरती पर स्वामीजी जैसे लोग भी हैं जो 'प्रेमकंद' के नहीं, 'प्रेमचंद' और उनके साहित्य के रसिक है. निवेदन स्वीकृत हो गया है और अब दुनिया के सामने 'प्रेमकंद' की जगह 'प्रेमचंद' का बायोडाटा पेश कर दिया गया है.
Tuesday, July 19, 2005
प्रेमचंद का बायोडाटा
बालाजी छाप टी.वी. सीरियलों के बारे में आपके घर में भी बातें जरूर होतीं होंगी. इन सीरियलों को आप नापसंद कर सकते हैं या मुमकिन है आप इनके दीवानें हों लेकिन यह संभव नहीं कि आप इन्हें नजर अंदाज कर सके. तो चलिए आज इस बारे में ही कुछ बात करते हैं.
वैसे तो टी.वी. लेखक का माध्यम कहा जाता है. मगर यहां लेखकों की क्या दुर्गति है इसकी एक बानगी पेश-ए-खिदमत है:-
आदर्श स्थिति में एक सीरियल बनाने के लिए एक अदद कहानी की जरुरत होती है, फिर इस कहानी पर आधारित कुछ एपिसोड की पटकथा और संवाद की तैयारी होनी चाहिए. इतना होने के बाद लेखक को एक ऐसे साहसी व्यक्ति का समर्थन चाहिए होता है जिसे प्रोड्यूसर कहा जाता है. फिर चैनल वालों को राज़ी करना होता है. अगर इन्हें कहानी पसंद आई तो फिर समझिए गाड़ी चल निकली.
ये तो थी आदर्श स्थिति. जबकि हकीकत यह है कि यहां गंगा उलटी बहती है. चैनलों के कर्ता-धर्ता यूं तो दिखते आधुनिक... नहीं शायद मैं कुछ ग़लत कह गया... अत्याधुनिक हैं पर कभी-कभी तो इनके काम का तरीका इतना पौराणिक है कि अपने सरकारी बाबु भी शर्मसार हो जाएं. चलाते तो हिंदी चैनल हैं पर इन चैनल बाबुओं का हिंदी ज्ञान देखकर सारे हिंदीप्रेमियों को आत्महत्या करने को जी चाहे.
मेरे एक करीबी के मित्र (प्रतिष्ठित निर्देशक) के पिता (बतौर प्रोड्यूसर) प्रेमचंद की कहानियों पर एक टेली श्रृंखला बनाने का प्रस्ताव लेकर एक टी.वी. चैनल के दफ्तर गये. चैनल में बैठा अत्याधुनिक बाबू (जो खुद को हॉलीवुड के लिए ही पैदा हुआ मानता है) ने प्रोजेक्ट के कॉंसेप्ट नोट के साथ राइटर का प्रोफाइल अटैच करने को कहा. इस पर प्रोड्यूसर ने याद दिलाने की कोशिश की कि यह श्रृंखला लेखक 'प्रेमचंद' की कहानियों पर आधारित है. इस पर चैनल बाबू का जवाब कुछ यूं था, "हां तो ठीक है न, प्रेमचंद को ही बोलो अपना CV मुझे mail कर देगा."
वैसे तो टी.वी. लेखक का माध्यम कहा जाता है. मगर यहां लेखकों की क्या दुर्गति है इसकी एक बानगी पेश-ए-खिदमत है:-
आदर्श स्थिति में एक सीरियल बनाने के लिए एक अदद कहानी की जरुरत होती है, फिर इस कहानी पर आधारित कुछ एपिसोड की पटकथा और संवाद की तैयारी होनी चाहिए. इतना होने के बाद लेखक को एक ऐसे साहसी व्यक्ति का समर्थन चाहिए होता है जिसे प्रोड्यूसर कहा जाता है. फिर चैनल वालों को राज़ी करना होता है. अगर इन्हें कहानी पसंद आई तो फिर समझिए गाड़ी चल निकली.
ये तो थी आदर्श स्थिति. जबकि हकीकत यह है कि यहां गंगा उलटी बहती है. चैनलों के कर्ता-धर्ता यूं तो दिखते आधुनिक... नहीं शायद मैं कुछ ग़लत कह गया... अत्याधुनिक हैं पर कभी-कभी तो इनके काम का तरीका इतना पौराणिक है कि अपने सरकारी बाबु भी शर्मसार हो जाएं. चलाते तो हिंदी चैनल हैं पर इन चैनल बाबुओं का हिंदी ज्ञान देखकर सारे हिंदीप्रेमियों को आत्महत्या करने को जी चाहे.
मेरे एक करीबी के मित्र (प्रतिष्ठित निर्देशक) के पिता (बतौर प्रोड्यूसर) प्रेमचंद की कहानियों पर एक टेली श्रृंखला बनाने का प्रस्ताव लेकर एक टी.वी. चैनल के दफ्तर गये. चैनल में बैठा अत्याधुनिक बाबू (जो खुद को हॉलीवुड के लिए ही पैदा हुआ मानता है) ने प्रोजेक्ट के कॉंसेप्ट नोट के साथ राइटर का प्रोफाइल अटैच करने को कहा. इस पर प्रोड्यूसर ने याद दिलाने की कोशिश की कि यह श्रृंखला लेखक 'प्रेमचंद' की कहानियों पर आधारित है. इस पर चैनल बाबू का जवाब कुछ यूं था, "हां तो ठीक है न, प्रेमचंद को ही बोलो अपना CV मुझे mail कर देगा."
किनारे बनाम लहरें
लहरें
किनारों का अपना अहं है... लेकिन लहरों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. ये तो अठखेलियां करते... किनारों के बीच से अपनी ही धुन में बढ़े चले जाते हैं. एक वक्त... एक गहराई... एक समंदर... जहां किनारों का कोई जोर नहीं, सिर्फ लहरें ही लहरें... चारों ओर लहरें... और किनारे? इस भरम में जीते हैं कि उसने लहरों को बांध रखा है. हकीकत तो यह है कि मगरूर किनारों में इतना जोर नहीं कि वे लहरों में चार कदम उतर कर देखें... डूबने का खतरा जो है. चढ़ती-उतरती लहरों की ताकत है उनकी लय... उनका रिद्म... जिसे आजतक न कोई किनारा तोड़ पाया है और न कभी तोड़ पाएगा.
साहिल
बहते दरिया के मौजों ने की हंसी
न जाना खिलखिलाहट ने दर्द-ए-साहिल
ये इश्क भी कैसा
कि... दीदार का तो इकरार है
पर... ताउम्र न मिलने की इक कसम
मौजों से कह दो
कह दो कि दरिया की गहराई का गुरूर न करे
ग़म-ए-आशिकी में साहिल के अश्क़ इतने बह जाएंगे
कि... दरिया दुजा बहता देख
मौजें भी शर्मसार हो जाएंगी
बनकर खुद साहिल
साहिल की आशिकी को अंजाम तक पहुंचाएंगी
किनारों का अपना अहं है... लेकिन लहरों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. ये तो अठखेलियां करते... किनारों के बीच से अपनी ही धुन में बढ़े चले जाते हैं. एक वक्त... एक गहराई... एक समंदर... जहां किनारों का कोई जोर नहीं, सिर्फ लहरें ही लहरें... चारों ओर लहरें... और किनारे? इस भरम में जीते हैं कि उसने लहरों को बांध रखा है. हकीकत तो यह है कि मगरूर किनारों में इतना जोर नहीं कि वे लहरों में चार कदम उतर कर देखें... डूबने का खतरा जो है. चढ़ती-उतरती लहरों की ताकत है उनकी लय... उनका रिद्म... जिसे आजतक न कोई किनारा तोड़ पाया है और न कभी तोड़ पाएगा.
वैसे किनारों का भी दर्द कुछ कम नहीं... जरा इनके दर्द पर गौर फरमाइये
साहिल
बहते दरिया के मौजों ने की हंसी
न जाना खिलखिलाहट ने दर्द-ए-साहिल
ये इश्क भी कैसा
कि... दीदार का तो इकरार है
पर... ताउम्र न मिलने की इक कसम
मौजों से कह दो
कह दो कि दरिया की गहराई का गुरूर न करे
ग़म-ए-आशिकी में साहिल के अश्क़ इतने बह जाएंगे
कि... दरिया दुजा बहता देख
मौजें भी शर्मसार हो जाएंगी
बनकर खुद साहिल
साहिल की आशिकी को अंजाम तक पहुंचाएंगी
Thursday, July 14, 2005
कुछ भोजपुरी हो जाए
आज भोजपुरी में कुछ लिखे के मन करता... बाकि बुझाते नइखे कि कहां से शुरू कइल जाए. अच्छा चली रामजी के नाव लेके कोलियरी चलल जाव. रउआ लो में से अगर केहू भोजपुरिया होई त उनके यह बात के जरूर ज्ञान होई कि अपना भोजपुरी समाज में कलकत्ता के चटकल के बाद सबसे अधिका प्रभाव कोलियरिये के पड़ल बा. वइसे इ बता दीं कि हमहूं कोलियरिये के गर्दा फांक के सयान भइल बानी.
भोजपुरिया समाज के मूल बिहार अ यु.पी. ह बाकि इत्र के सुगंध खानी आज हमनी दुनिया के हर कोना में पाय जाय वाला प्रजाति के जीव हो गइल बानी स. लेकिन जब कोलियरी के बात होता त बिहार से कटके नया बनल राज्य झारखंड चले के पड़ी. वइसे इ अलग बात बा कि यह बंटवारा से कुछ नेताजी लोग के छोड़ के शायदे केहू के भला भइल बा.
आज त हालात बहुत बदल गइल बा बाकि पापा (32 साल कोलियरी में नौकरी करके इहे 30 जून के रिटायर भइनी ह) बतावेनी कि पहिले कोलियरी में केहू आवल ना चाहत रहे. गरीबी के मार कहीं भा कौनो आउर मजबुरी भोजपुरी क्षेत्र के आपन किसानी छोड़के लोगन के कोयलांचल के जंगल-झाड़ में आके आपन किस्मत आजमावे के सिलसिला बहुत पुरान ह. सत्तर के दशक में कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद कोलियरी में सुरक्षा पर बहुत ध्यान देहल जाय लागल, जेकरा चलते वोजा काम कइल पहिले जइसन खतरनाक त नइखे रह गइल बाकि मुश्किल अबहिंयो बा. अभी हाले में रामगढ़ कोयलांचल में खदान धंसला से 14 लोग के मौत वोह मुश्किल के एगो बानगी भर बा. अइसने एगो दुर्घटना 30 साल पहिले चासनाला में भइल रहे जहां सैकड़ों लोग आपन जान गंवा देले रहन. इहे घटना पर आधारित यश चोपड़ा के फिल्म 'काला पत्थर' आज भी अगर हम देख लीं त आंख से झरझर पानी बहे लागेला.
अब देखी न आंख त अभियों नम हो गइल... आज खाती एतना ही. कोलियरी के जिनगी के बहुत रंग बा बाकि वादा रहल कि उ रंग हम रउआ लो के जरूर देखाइम.
भोजपुरिया समाज के मूल बिहार अ यु.पी. ह बाकि इत्र के सुगंध खानी आज हमनी दुनिया के हर कोना में पाय जाय वाला प्रजाति के जीव हो गइल बानी स. लेकिन जब कोलियरी के बात होता त बिहार से कटके नया बनल राज्य झारखंड चले के पड़ी. वइसे इ अलग बात बा कि यह बंटवारा से कुछ नेताजी लोग के छोड़ के शायदे केहू के भला भइल बा.
आज त हालात बहुत बदल गइल बा बाकि पापा (32 साल कोलियरी में नौकरी करके इहे 30 जून के रिटायर भइनी ह) बतावेनी कि पहिले कोलियरी में केहू आवल ना चाहत रहे. गरीबी के मार कहीं भा कौनो आउर मजबुरी भोजपुरी क्षेत्र के आपन किसानी छोड़के लोगन के कोयलांचल के जंगल-झाड़ में आके आपन किस्मत आजमावे के सिलसिला बहुत पुरान ह. सत्तर के दशक में कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद कोलियरी में सुरक्षा पर बहुत ध्यान देहल जाय लागल, जेकरा चलते वोजा काम कइल पहिले जइसन खतरनाक त नइखे रह गइल बाकि मुश्किल अबहिंयो बा. अभी हाले में रामगढ़ कोयलांचल में खदान धंसला से 14 लोग के मौत वोह मुश्किल के एगो बानगी भर बा. अइसने एगो दुर्घटना 30 साल पहिले चासनाला में भइल रहे जहां सैकड़ों लोग आपन जान गंवा देले रहन. इहे घटना पर आधारित यश चोपड़ा के फिल्म 'काला पत्थर' आज भी अगर हम देख लीं त आंख से झरझर पानी बहे लागेला.
अब देखी न आंख त अभियों नम हो गइल... आज खाती एतना ही. कोलियरी के जिनगी के बहुत रंग बा बाकि वादा रहल कि उ रंग हम रउआ लो के जरूर देखाइम.
Wednesday, July 13, 2005
मिर्ज़ा असद-उल्लाह ख़ां ग़ालिब की आबरू
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे,
कह्ते हैं के ग़ालिब का अंदाज़े बयां और
अंदाज़े ग़ालिब: सन 1852 में मिर्ज़ा ग़ालिब को नौकरी का बुलावा आया. दिल्ली कॉलेज में उन्हें फ़ारसी का प्रमुख शिक्षक बनाना था. बहुत बुरी आर्थिक हालत थी. इसीलिए प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. टॉमसन साहब गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया के सेक्रेट्री थे. उन्होंने बुलावा भेजा था. पालकी में बैठकर साहब के बंगले पर मिर्ज़ा ग़ालिब पहुंच गए. अंदर कहलावा भेजा और इंतिज़ार करने लगे, पर टॉमसन साहब उनके स्वागत के लिए बाहर नहीं आए. ग़ालिब के आत्मसम्मान को चोट पहुंची. वे वापस जाने लगे. टॉमसन साहब को उनकी नाराजगी का पता चला, तो बाहर आए. उन्होंने चचा ग़ालिब को समझना चाहा कि इस वक्त वह ख़ास मुलाक़ाती तो हैं नहीं, कि बाहर आकर उनका स्वागत किया जाता, वह तो नौकरी के लिए आए हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब टॉमसन साहब की दलील सुनकर जरा भी नहीं पिघले. उन्होंने तुरंत कहा, "जनाबे आली, अगर नौकरी का मतलब यह है कि इससे इज़्ज़त में कमी आ जाएगी, तो ऐसी नौकरी मुझे मंज़ूर नहीं." उन्होंने आदब बजाया और पालकी में सवार हो लौट पड़े.
सौजन्य: दीवान-ए-ग़ालिब
बड़े चर्चे हैं इन दिनों हिंदी में लाइव जर्नल के. तो चलिए चचा ग़ालिब आपको भी पहुंचा दें वहां.
Thursday, July 07, 2005
Wednesday, July 06, 2005
आउउउउ... ... बदले-बदले से शक्ति कपूर
इंडिया टीवी के स्टिंग ऑपरेशन के सदमे ने शक्ति (आउउउउ) कपूर की दिमागी हालत इतनी बिगाड़ दी है कि उन्होंने दूसरों का दिमाग खराब करने का पक्का मन बना लिया है. जी हां, वे लेखक बन गये हैं. अगर उनका लेखन स्टिंग ऑपरेशन से प्रभावित हुआ तब तो तय है कि उनका आउउउउ... साहित्य सिर्फ बड़े बच्चों के लिए ही होगा.
Tuesday, July 05, 2005
Monday, June 27, 2005
Saturday, June 25, 2005
आपातकाल और ब्लॉग की दुनिया
आज से तीस साल पहले (तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था) आज की ही रात भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की सबसे स्याह रात साबित हुई थी. जी हां मैं आपातकाल की ही बात कर रहा हूं. शुक्र है हमारी पिछली पीढ़ी ने अपनी जागरूकता की रोशनी से उस अंधेरे को हम तक पहुंचने से पहले ही खत्म कर दिया. आज हम जो ये अपनी ब्लॉग की दुनिया बनाए बैठे हैं, कहीं न कहीं इसका श्रेय उनको ही जाता है. बोलने की आजादी के लिए लड़ी गई उस लड़ाई को याद करने का यह सही मौका है. ब्लॉग जगत के हमारे कई साथी तो उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व भी करते हैं उनसे मेरा आग्रह है कि उन दिनों के अपने अनुभवों को हमारी पीढ़ी की संग बांटें. वैसे ये मुद्दा विश्व स्तर आज भी प्रासांगिक है. अभी हाल ही में Microsoft China ने चीनी ब्लॉग जगत में सेंसरशिप लगा ही दिया है. Microsoft censors Chinese blogs
बेवफाई
इश्क का सफर ये कैसा
ना शुरू की ख़बर
ना आखिर का गुमां
हो रास्ते में आपका साथ
था बस यही एक अरमां
सुना था...
हर रिश्ते का जरूरी होता है इक नाम
आप माशूक हैं हमारे
हमने भी कह डाला सरेआम
पड़ते ही नाम हुआ ये अंजाम
कि बाकी है अब पकड़ना महज इक जाम
बड़े-बुढ़े ठीक कहा करते
सुनी-सुनाई बातों पर यकीन ना कर
अच्छी भली ख़्वाहिश
आज बेवफा-सी तो ना लगती
ना शुरू की ख़बर
ना आखिर का गुमां
हो रास्ते में आपका साथ
था बस यही एक अरमां
सुना था...
हर रिश्ते का जरूरी होता है इक नाम
आप माशूक हैं हमारे
हमने भी कह डाला सरेआम
पड़ते ही नाम हुआ ये अंजाम
कि बाकी है अब पकड़ना महज इक जाम
बड़े-बुढ़े ठीक कहा करते
सुनी-सुनाई बातों पर यकीन ना कर
अच्छी भली ख़्वाहिश
आज बेवफा-सी तो ना लगती
मुम्बई के सच्चे सिपाही
पिछले एक हफ्ते से मुम्बई में हो रही भारी बारिस कहीं तेज रफ्तार शहर की गति को धीमा न कर दे इसी जद्दोजहद में कुर्ला स्टेशन के नजदीक लगे हुए हमारे कर्मठ रेलकर्मी. (चित्र: बी.एल.सोनी) mid-day
हिंदी की हालत
यह सुनकर बड़ा अच्छा लगता है कि हिंदी एक जीवंत भाषा है, लेकिन दिल से आह निकल जाती है, जब किसी मृत होती भाषा के शुरुआती लक्षण हिंदी में भी दीख पड़ते हैं. इस स्थिति के लिए भाषाई कारण कम, राजनैतिक कारण अधिक उत्तरदायी हैं. इन कारणों का विश्लेषण करना मैं नहीं चाहता. मुझे हिंदी की जीवनी शक्ति पर पूरा भरोसा है. डर है तो सिर्फ हिंदी के उन तथाकथित समर्थकों से, जो हिंदी के विकास के नाम पर हिंदी की ही जड़ खोदने में लगे हैं. दो सौ वर्षों की गुलामी के दौरान अंग्रेजी के भाषायी साम्राज्यवाद की शिकार रही हिंदी का, आजादी के बाद पोषण के बदले इन कथित हिंदी समर्थकों ने हिंदी की सहयोगी भाषाओं (जिन्हें उन्होंने बोली कहा है) के शोषण का कुचक्र शुरू कर दिया. ये हिंदी की अपनी ही जड़ों में मठ्ठा डालनेवाली बात हो गयी. आज जरुरत इस बात की है कि हिंदी की सहयोगी भाषाओं का स्वतंत्र विकास सुनिश्चित किया जाए, इससे अंततोगत्वा हिंदी न केवल राष्ट्रभाषा, वरन विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर होगी.
Thursday, June 16, 2005
धूम्रपान दृश्यों पर 2 अक्टूबर से प्रतिबंध
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और सूचना मंत्रालय की बैठक के बाद यह फ़ैसला हुआ है कि दो अक्टूबर से फ़िल्मों और टीवी में धूम्रपान के दृश्यों पर प्रतिबंध लागू हो जाएगा. और जानिए...
>सिनेमा और टीवी के पर्दे पर सिगरेट के इस्तेमाल पर लगी रोक बेशक एक सराहनीय कदम है लेकिन धूम्रपान से होने वाले नुक़सानों के ख़िलाफ़ ऐसे क़दम तब तक नाकाफ़ी ही साबित होंगे जब तक कि इसकी जड़ यानी कि इसके निर्माण पर रोक न लगाई जाए. भला नैतिकता का यह कैसा पाठ कि एक तरफ तो हमारी सरकार ऐसी पाबंदियों कि बात करती है वहीं दुसरी तरफ तम्बाकू उद्योग से प्राप्त होने वाले भारी राजस्व को भी छोड़ना नहीं चाहती.<<
Tuesday, June 14, 2005
'ख़ास' और 'आम' कानून
अगर आप मानते हैं कि राजे-रजवाड़े बीते दिनों की बातें हैं तो आप मुगालते में हैं. यकीन न हो तो किसी पुराने नवाब या नये नवाबजादों की सनक के रास्ते आकर देखिए. भारत में अक्सर 'ख़ास' लोगों के आपराधिक मामलों में फंसने की ख़बर आती है, कभी दलेर मेंहदी, सलमान ख़ान, तो कभी मंत्रिपद संभाल रहे शिबू सोरेन की. इन दिनों सुर्खियों में है टाइगर मंसूर अली ख़ां पटौदी और टाइम पत्रिका में नाम दर्ज करवानेवाले पटना के पूर्व ज़िलाधीश गौतम गोस्वामी.
अगर आप आम आदमी हैं तो पुलिस बिना बात के भी आपको उठाकर ले जा सकती है. ख़ास हैं तो फिर डरने की क्या बात है. मजे से अपराध कीजिए, फुरसत मिले तो अग्रिम जमानत ले लीजिए. वैसे जब तक न मिले तब तक अंडरग्राउंड रह सकते हैं. पुलिसवाला आपके घर आपकी दावत में बतौर मेहमान आयेगा जरूर, मगर क्या मजाल जो आपको पहचान जाए. सिर पर घोषित इनाम का बुरा तो आम लोग मानते हैं. ख़ास तो इसे सिर का ताज मानते हैं. वाह ताज!
वैसे अमेरिका की नकल में भले हमारा कोई सानी नहीं, मगर इस मामले में? स्वदेसी आंदोलन जिंदाबाद! भले ही अमेरिकी पुलिस अपनी एक 'ख़ास' हस्ती, मशहूर अभिनेता रसेल क्रो, को सारी दुनिया के सामने हथकड़ी लगाकर ले जाए. मोनिका जैसी आम लड़की के कहने पर भले अपने राष्ट्रपति को महाभियोग तक में घसीट लाएं. मगर ऐसे किसी अमेरिकी दिखावे से हम अपने लक्षण खराब नहीं करेंगे.
Monday, June 13, 2005
खाली हाथ
न देख इन हाथों को
इस कदर हिकारत से
गर मिल जाए एक पत्थर भी इसे
भगवान बना देते हैं
सजदा करता है तू जिन जवाहरात का
कभी पड़े थे इन्हीं हाथों में एक पत्थर की तरह
Friday, June 10, 2005
विक्षिप्त है वर्तमान
विक्षिप्त है वर्तमान
बता इतिहास किसने किया इसका अपमान
जन्मा तो यह तेरे ही कोख से
था मासूम, अबोध, नादान
आह्लादित था भविष्य देख इसकी मुस्कान
विक्षिप्त है वर्तमान
इतिहास कहता है:
मैं हूं इसका साक्षी
मुझे है इस सब का ज्ञान
सुनों दोषियों के षडयंत्र की दास्तान
पर रे भविष्य तू क्यों रोता है
पाया क्या था जो तू खोता है
पूछ मुझ इतिहास से दर्द क्या होता है
देखा है मैंने ईमान को लुटते हुए
सत्य के अरमान को घुटते हुए
यह वर्तमान जो तुझ तक पहुंचा है
कोशिश इसने भी कम न की थी
लेकिन अतीत पर दोषारोपण से बच न सका
तभी तो विक्षिप्त है वर्तमान
बता इतिहास किसने किया इसका अपमान
जन्मा तो यह तेरे ही कोख से
था मासूम, अबोध, नादान
आह्लादित था भविष्य देख इसकी मुस्कान
विक्षिप्त है वर्तमान
इतिहास कहता है:
मैं हूं इसका साक्षी
मुझे है इस सब का ज्ञान
सुनों दोषियों के षडयंत्र की दास्तान
पर रे भविष्य तू क्यों रोता है
पाया क्या था जो तू खोता है
पूछ मुझ इतिहास से दर्द क्या होता है
देखा है मैंने ईमान को लुटते हुए
सत्य के अरमान को घुटते हुए
यह वर्तमान जो तुझ तक पहुंचा है
कोशिश इसने भी कम न की थी
लेकिन अतीत पर दोषारोपण से बच न सका
तभी तो विक्षिप्त है वर्तमान
ये धंधा है...
माइक्रोसॉफ़्ट ने इंडोनेशिया को रियायत दी... देना ही पड़ेगा बिल भइया, क्या करोगे ये धंधा है... धंधे में रहना है तो पंगे नहीं लेने का. अमरीकी सॉफ़्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ़्ट ने सरकारी दफ़्तरों में अपने जाली उत्पादों के इस्तेमाल के मामले में इंडोनेशिया के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करने का फ़ैसला किया है. माइक्रोसॉफ़्ट और इंडोनेशिया सरकार के बीच सहमति बन गई है. bbc
Wednesday, June 08, 2005
जिन्ना बनाम आडवाणी
पता नहीं क्यों भाजपा और संघ परिवार के मुद्दे अक्सर भावनात्मक ही क्यों होते हैं. क्या फर्क पड़ता है यदि आडवाणी ने जिन्ना को 'धर्मनिरपेक्ष नेता' कह दिया. इसे तो मैं भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का इतिहास के प्रति दुराग्रहों के खुलते गांठ के रूप में देखता हूं. दो देशों के रिश्तों में सुधार के लिए यदि तथाकथित विचारधारा (अहं) से थोड़ा उन्नीस-बीस होना भी पड़े तो भी यह घाटे का सौदा नहीं होगा. पर हां, ऐसी ही उम्मीद हमें पाकिस्तान के दक्षिणपंथियों से भी होगी.
BBC
BBC
Tuesday, June 07, 2005
पर्दे पर कश की कशमकश
कभी-कभी किसी समस्या से निपटने की सरकारी कोशिश किसी कॉमेडी फिल्म के सीन-सा मालूम पड़ती है. फ़िल्म, टीवी और विज्ञापनों में सिगरेट या किसी भी तरह के तम्बाकू उत्पाद के इस्तेमाल पर रोक का सरकारी फरमान भी ऐसा ही जान पड़ता है. हो सकता है इसके पीछे नीयत अच्छी हो, मगर यह निहायत ही अव्यवहारिक फैसला है.
इसमें कोई शक़ नहीं कि फिल्म और टीवी का समाज पर व्यापक प्रभाव है. समाज में असली नायकों के अभाव में पर्दे के नायक ही रोल मॉडलों भूमिका में भी आ गये हैं. ऐसे में पर्दे पर इनकी हरकतों का युवा वर्ग पर प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता. समझने वाली बात यह है कि ये नायक नहीं बल्कि पर्दे पर समाज का ही प्रतिबिंब मात्र हैं. इनसे आदर्श छवि की उम्मीद ख़्याली पुलाव के सिवा और कुछ नहीं.
रही बात तम्बाकू के कुप्रभावों से समाज को बचाने की तो उसके लिए ऐसे चोंचलों की नहीं ईमानदार कोशिश की जरुरत है. सरकार अगर वाकई इस मामले में कुछ करने की हसरत रखती है तो उसे चाहिए कि तम्बाकू उत्पादों से प्राप्त होने वाले राजस्व का मोह छोड़े और तम्बाकू व उसके उत्पादों के उत्पादन को प्रतिबंधित करे. या फिर इस सरकारी फिक्र को धुंएं में उड़ता हुआ देखता रहे.
इसमें कोई शक़ नहीं कि फिल्म और टीवी का समाज पर व्यापक प्रभाव है. समाज में असली नायकों के अभाव में पर्दे के नायक ही रोल मॉडलों भूमिका में भी आ गये हैं. ऐसे में पर्दे पर इनकी हरकतों का युवा वर्ग पर प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता. समझने वाली बात यह है कि ये नायक नहीं बल्कि पर्दे पर समाज का ही प्रतिबिंब मात्र हैं. इनसे आदर्श छवि की उम्मीद ख़्याली पुलाव के सिवा और कुछ नहीं.
रही बात तम्बाकू के कुप्रभावों से समाज को बचाने की तो उसके लिए ऐसे चोंचलों की नहीं ईमानदार कोशिश की जरुरत है. सरकार अगर वाकई इस मामले में कुछ करने की हसरत रखती है तो उसे चाहिए कि तम्बाकू उत्पादों से प्राप्त होने वाले राजस्व का मोह छोड़े और तम्बाकू व उसके उत्पादों के उत्पादन को प्रतिबंधित करे. या फिर इस सरकारी फिक्र को धुंएं में उड़ता हुआ देखता रहे.
Monday, June 06, 2005
अश्रु
समय का एक पल
चुभ गया हृदय में शूल बनकर
असह्य वेदना देख हृदय की
अश्रु हुआ विह्वल
घड़ी यह उसकी परीक्षा की
खुली पलकों की खिड़की
नम पुतलियों का छूटता आलिंगन
काजल की चौखट को कर पार
ठपकी बूंद बनकर कपोल पर
चुभ गया यह
विरह का एक पल बनकर
हरा रहेगा घाव सदा अश्रु का
कपोल पर सूख भले ही बूंद जाए
Wednesday, March 02, 2005
जेठ की कजरी
जेठ की उमस भरी दुपहरी
बेचैन-सी कजरी
हाय रे, बनाती तू अमीरों के महले-दूमहले
झोपड़ी मयस्सर न तुझे रे कजरी
पेड़ पर टांगा है पुरानी धोती का पालना
जिस पर झूलता है तेरा लालना
सिर पर गारे की तगाड़ी संभाले एक हाथ
दूसरे हाथ में है मलिन चीथड़े का पल्लू
क्या संभाले वो
एक में है उसके भूखे बच्चे की रोटी
दूसरे हाथ में अस्मिता है सिमटी
करती वो परवाह किसकी
देता उसे क्या जमाना
भूखे गिद्ध-सी नजरे और हवस का नजराना
जीतती है मां, हारती यौवना
नहीं वो सिर्फ यौवना,एक मां भी है जिसे पूजता सारा जमाना
बेचैन-सी कजरी
हाय रे, बनाती तू अमीरों के महले-दूमहले
झोपड़ी मयस्सर न तुझे रे कजरी
पेड़ पर टांगा है पुरानी धोती का पालना
जिस पर झूलता है तेरा लालना
सिर पर गारे की तगाड़ी संभाले एक हाथ
दूसरे हाथ में है मलिन चीथड़े का पल्लू
क्या संभाले वो
एक में है उसके भूखे बच्चे की रोटी
दूसरे हाथ में अस्मिता है सिमटी
करती वो परवाह किसकी
देता उसे क्या जमाना
भूखे गिद्ध-सी नजरे और हवस का नजराना
जीतती है मां, हारती यौवना
नहीं वो सिर्फ यौवना,एक मां भी है जिसे पूजता सारा जमाना
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