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Showing posts from December, 2005

राजदीप सरदेसाई को दस में दस

ईमानदार कोशिशें हमेशा रंग लाती है. इसकी ताज़ा मिसाल है अपनी पीढ़ी में सबसे प्रतिभाशाली हिन्दुस्तानी पत्रकार राजदीप सरदेसाई का नया समाचार चैनल सीएनएन-आईबीएन . इस चैनल के टेस्ट सिग्नल की शुरुआत हो गई है और संभवत जनवरी के पहले सप्ताह से यह विधिवत मैदान में होगा. अगर आप पहली नज़र के प्यार पर यकीन करते हैं तो मैं कहना चाहूंगा कि कल रात पहली मुलाकात में ही मुझे सीएनएन-आईबीएन से प्यार हो गया. वैसे तो मैं खुद भी पत्रकार रहा हूं लेकिन इस बहुचर्चित और बहुप्रतिक्षित चैनल के सामने कल मैं एक आम दर्शक के रूप में बैठा था. मेरा अनुभव कहता है कि यह चैनल भीड़ से बिलकुल अलग है. राजदीप के आईबीएन सेना का हर सिपाही अपना बेस्ट देने की कामयाब कोशिश कर रहा था. सबसे मजेदार बात तो मुझे यह लगी कि इनमें से कुछ सिपाही जब दूसरी सेनाओं में थे तब वे इतने योग्य कभी नहीं लगे. इस बात के लिए मुझे एक बार फिर राजदीप के नेतृत्व की तारीफ करनी पड़ेगी. कल तकरीबन ढाई घंटे तक मैंने इनका प्रसारण देखा, न्यूज़ ब्रॉडकास्ट के हर क्षेत्र में यह चैनल नये मानक तय करता मालूम पड़ता है. सही मायने में इस चैनल की शुरुआत के साथ भारत में न्यूज़ ब्रॉडक...

सवेरा होगा

कुछ दूर, नहीं बहुत पास कुछ है, कुछ है वहां एक आकृति कुछ धुंधली-सी इधर ही आती नहीं, मैं ही चलूं वहां देखूं तो क्या वही है जिसकी है तलाश मुझे अरे! यह घुप अंधेरा कहां से आया कहां गई वो शुरू फिर वही तलाश जरूर कोई बात है तभी तो आई ये अमावस-सी रात है शायद मुझे रोशनी की तलाश है वह आकृति नहीं भटकाव था डगमगाया तभी तो मेरा पांव था होगी एक नई सुबह न आकृति होगी... न अंधेरा होगा... सिर्फ सवेरा होगा...

महाराष्ट्र और बिहार दोनों भारत में ही हैं

विश्वनाथ सचदेव लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार और नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक हैं. तीस-चालीस साल पुरानी हो चुकी यह बात। तब मैं नागपुर विश्वविद्यालय में पढ़ता था। जिस हॉस्टल में मैं रहता था, उसमें कई राज्यों के विद्यार्थी थे। सवेरे सबको जल्दी होती थी। गुसलखाने में रोज लाइन लगती थी। गर्म पानी के लिए सिर्फ एक गीजर था। अक्सर झड़प भी हो जाती थी। पर वह झड़प वहीं तक सीमित होती थी। नहा-धोकर फिर सब साथ हो जाते थे। किसी को किसी की 'दादागिरी' से शिकायत नहीं रहती थी। चालीस साल पुरानी ये बातें मुझे मुम्बई के जे.जे. अस्पताल में डॉक्टरी पढ़ रहे विद्यार्थियों के संदर्भ में याद आ रही हैं। हाल ही में यहां भी गर्म पानी पर विवाद हो गया था। पहले भी होता होगा ऐसा विवाद, पर इस बार मामला तूल पकड़ गया। सुना है, कुछ विद्यार्थी फरियाद लेकर शिवसेना के बागी नेता राज ठाकरे के पास जा पहुंचे। उन्हें शिकायत थी कि बाहरी राज्यों के, खासकर बिहार के, विद्यार्थी झगड़ा करते हैं। राज को इन दिनों मुद्दों की जरूरत है। वे तत्काल हस्तक्षेप के लिए तैयार हो गए। राज के प्रतिद्वंद्वी उद्धव को भी भनक लगी। मराठी माणूस का नारा लगाते हु...

अनुगूँज १५ - हम फिल्में क्यों देखते हैं?

हम फिल्में क्यों देखते हैं? जाहिर सी बात है फिल्में बनती हैं इसलिए हम फिल्में देखते हैं. यकीन मानिये अगर फिल्में नहीं बनतीं तो हम कुछ और देखते. मसलन, कठपुतली का नाच, तमाशा, जात्रा, नौटंकी, रामलीला या ऐसा ही कुछ और. खैर सौभाग्य या दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है इसलिए हम वापस फिल्मों की ओर चलते है. शुरू करते हैं सिनेमाघर में पहली फिल्म देखने से. इस मंदिर में मैंने पहली पूजा स्कूल से निकलने और कॉलेज में दाखिले के पहिले की थी. नाम तो ठीक-ठीक याद नहीं पर फिल्म में हिरोइन अपने अजय देवगन की श्रीमती (तब कुवांरी) काजोल थीं और शायद उनकी भी यह पहली ही फिल्म थी. ( पहली फिल्म देखने में मैंने इतनी देर क्यों की? मुगालते में मत रहिये... शराफत के किस्से आगे हैं.) कोलफील्ड की हमारी कॉलोनी शहर से बीस किलोमीटर दूर थी और हम बच्चों की पूरी दुनिया कॉलोनी तक ही सीमित हुआ करती थी. लिहाजा शहर के सिनेमाघर में यह फिल्म देखना मेरे लिए बड़ा ही साहसिक कदम और नये अनुभवों से भरा था... उस दिन तो मानो खुले आसमान में पहली उड़ान-सा अहसास था. अब चलिए जरा पीछे के कालखंड में चलकर मेरे फिल्में देखने के कारणों की पड़ताल करते हैं. तकर...