हम फिल्में क्यों देखते हैं?जाहिर सी बात है फिल्में बनती हैं इसलिए हम फिल्में देखते हैं. यकीन मानिये अगर फिल्में नहीं बनतीं तो हम कुछ और देखते. मसलन, कठपुतली का नाच, तमाशा, जात्रा, नौटंकी, रामलीला या ऐसा ही कुछ और. खैर सौभाग्य या दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है इसलिए हम वापस फिल्मों की ओर चलते है.
शुरू करते हैं सिनेमाघर में पहली फिल्म देखने से. इस मंदिर में मैंने पहली पूजा स्कूल से निकलने और कॉलेज में दाखिले के पहिले की थी. नाम तो ठीक-ठीक याद नहीं पर फिल्म में हिरोइन अपने अजय देवगन की श्रीमती (तब कुवांरी) काजोल थीं और शायद उनकी भी यह पहली ही फिल्म थी. ( पहली फिल्म देखने में मैंने इतनी देर क्यों की? मुगालते में मत रहिये... शराफत के किस्से आगे हैं.) कोलफील्ड की हमारी कॉलोनी शहर से बीस किलोमीटर दूर थी और हम बच्चों की पूरी दुनिया कॉलोनी तक ही सीमित हुआ करती थी. लिहाजा शहर के सिनेमाघर में यह फिल्म देखना मेरे लिए बड़ा ही साहसिक कदम और नये अनुभवों से भरा था... उस दिन तो मानो खुले आसमान में पहली उड़ान-सा अहसास था.
अब चलिए जरा पीछे के कालखंड में चलकर मेरे फिल्में देखने के कारणों की पड़ताल करते हैं. तकरीबन 1500 घरों की हमारी कॉलोनी में पहला टेलिविजन सन 84 के आखरी महीनों में और हमारे मुहल्ले में उसके कुछ महीने बाद यानी सन 85 में आया. यही से शुरू होता है मेरे फिल्म दर्शक बनने का सिलसिला. हालांकि इससे पहले कॉलोनी के खुले मैदान में 16 एमएम प्रोजेक्टर से साप्ताहिक दिखाई जाने वाली फिल्में देखी थी पर यादें धुंधली है इसलिए उस दौरान देखी गई फिल्मों का दोष घर के बुजूर्गों के मत्थे.
जैसा कि मैंने अपने मुहल्ले में टीवी आने का जिक्र किया है. स्वाभाविक-सी बात है यह एक ऐतिहासिक घटना (मेरे फिल्मची बनने की जड़े यहीं हैं) थी... और मुहल्ले के इस इतिहास के रचयिता थे बच्चों के चहेते तिवारी चचा. बाद में मुहल्ले के पहले रंगीन टीवी और पहले वीसीपी के स्वामित्व का सम्मान भी इन्हीं के खाते में आया. बहरहाल तिवारी चचा अपने घर टीवी आने के ऐतिहासिक आयोजन में हम बच्चों को शामिल करना नहीं भूले. शायद चचा को मालूम था कि हम बच्चे ही इस इतिहास के जीते-जागते पन्ने हैं जिसके माध्यम से जमाने में उनकी कृतित्व को पढ़ा जायेगा. हुआ भी यही, आगे महीनों तक हम बच्चे चचा के शौर्य का यशगान करते रहे. इस मुनादी के लिए चचा हममें बिना नागा किये दूरदर्शन के कार्यक्रमों की आरएसएस फीड डालना नहीं भूलते. घर वालों को भी हमारे टीवी देखने पर कुछ खास ऐतराज नहीं होता था. कारण:- एक तो मुहल्ले का लगभग हर घर तिवारी चचा के शौर्य के प्रभाव में आ चुका था और वह खुद भी दर्शकों में शामिल था, दूजा यह कि घर वालों को कुछ समय के लिए हमारे उधम से छुटकारा मिल जाया करता.
उन दिनों हमारे इतवार खास होने लगे. क्योंकि एक तो इतवार की शाम को टीवी पर फिल्में आती दूसरे सिर्फ इतवार को ही दिन में भी कार्यक्रम प्रसारित होते. हालांकि फिल्मी गीतमाला चित्रहार की वजह से बुधवार और शुक्रवार की भी खासी अहमियत थी. हालांकि शुरूआत में हमारे लिए फिल्म और कृषि दर्शन, चित्रहार और समाचार में ज्यादा अंतर नहीं था. हमारे लिए तो टीवी देखना ही एकमेव ध्येय था. शाम को दूरदर्शन के पट खुलने से लेकर जब तक झपकी न आने लगे तब तक बच्चे चचा के घर डटे रहते. अक्सर हमसे से अधिकतर टांगकर या बहला फुसलाकर घरों को लाये जाते. कभी-कभी तो हम दूरदर्शन के पट बंद होने तक उस पर टकटकी लगाये रहते.
खैर, समय बीतता गया. धीरे-धीरे हमें टीवी के दूसरे कार्यक्रमों और फिल्मों का फर्क समझ में आने लगा. कहने की जरूरत नहीं कि फिल्में हमें ज्यादा आकर्षित कर रही थी. अब तक मेरे घर सहित मुहल्ले के कई घरों में टीवी के एंटिने दिखने लगे थे. लेकिन हमारे तिवारी चचा के घर की रौनक पर मुहल्ले के दूसरे एंटिना फर्क नहीं डाल सके थे. क्योंकि अब उनके टीवी के स्क्रीन पर तस्वीरें रंगीन दिखने लगी थी. मुहल्ले के इतिहास के सूत्रधारों यानी हम बच्चों की अब भी चचा का वफादार बने रहना टीवी (ब्लैक एंड ह्वाइट ही सही) वाले घरों के अभिभावकों को खटकने लगा था. पर अक्सर उनकी झिड़कियों पर चचा का रंगीन टीवी भारी पड़ता. (आज फिल्मों में रंग-संयोजन के प्रति अपने संवेदनशीलता की वजह मैं इसे ही मानता हूं.)
अब उस दौर का आगमन होता है जब फिल्में देखने के लिए उस दूरदर्शन पर निर्भरता कम होती जा रही थी, जिस पर सिर्फ पुरानी फिल्मों की ही चहल थी. वीएचएस क्रांति के इस दौर में के हमारे फिल्म दर्शकत्व को एक नया आयाम मिला और हम नई फिल्में देखने में खुद को सक्षम पाने लगे. इस दौर को विडियो युग कहना सबसे सही होगा. इस दौर में वीसीपी और वीसीआर का स्वामी होना मुहल्ले में किसी सल्तनत के सुल्तान-सी हैसियत दिलाता था. हालांकि मुहल्ले के पहले वीसीपी का मालिक होने का श्रेय भी अपने तिवारी चचा को ही जाता है, मगर तब तक बाज़ार में वीसीपी किराये पर देने का व्यवसाय शुरू हो चुका था. इस व्यवसाय की वजह से चचा की बैठक को किसी और बैठक से कड़ी चुनौती मिलने वाली थी.
यह चुनौती मिली मुहल्ले में एक ऐसे सदस्य के आगमन से जो पुलिस सेवा में थे. इस परिवार के आने से हमारी वानर की ताकत में तो इजाफा हुआ ही साथ ही मुहल्ले के लोगों की फिल्में देखने की आदत में आमूलचूल परिवर्तन हुआ.
हमारे ये नये पड़ोसी बाजार में उपलब्ध सेवाओं के इस्तेमाल से तो परहेज नहीं करते लेकिन पुलिस में थे इसलिए उसकी कीमत चुकाना अपनी शान के खिलाफ समझते. विडियो पर फिल्में दिखाने वालों पर तो ये मानो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे. अब इस तरह के सुविधा से लैस पड़ोसी के मुकाबले अपने तिवारी चचा कहां टिकने वाले थे, लिहाजा अब वो हथियार डाल दिया. इस मामले में ड्राइविंग सीट तो चचा ने छोड़ दी लेकिन बस की सवारी नहीं छोड़ी. आखिर थे तो वो बहुत बड़े फिल्मची. उनके फिल्म प्रेम से प्रेरणा और उनके संरक्षण में हम सब ने अपने पुलिस पड़ोसी के विशेषाधिकारों का इस्तेमाल शुरू कर दिया. पुलिस पड़ोसी के नाम की धौंस पट्टी में इलाके के सभी विडियो पार्लर वाले थे. बस जब भी इशारा होता पार्लर वाले वीसीपी और चार-पांच कैसेट तो देते ही देते अपना रंगीन टीवी भी ठेले पर लदवाकर हमारे मुहल्ले में पहुंचा जाते. इस दौर में हमारे मुहल्ले में विडियो फिल्म प्रदर्शन सार्वजनिक आयोजन का रूप ले चुका था. और जब आयोजन सार्वजनिक हो तो भव्य होना लाजिमी है. पुलिस पड़ोसी के राज में विडियो प्रदर्शन कमरों से निकलकर बाहर खुले में होने लगे और एक-साथ कम-से-कम तीन-चार फिल्मों का प्रदर्शन अनिवार्य हो गया. इस तरह के आयोजनों की नियमितता लगभग साप्ताहिक होती थी. विशेष मौकों पर कभी-कभी यह आयोजन सप्ताह में एकाधिक बार होते. भव्यता की वजह से विडियो लोकप्रियता में टीवी को भी पीछे छोड़ चुका था.
अब तो यह दौर भी बीत चुका है. आज तो देशी के साथ-साथ विदेशी फिल्में देखने के लिए भी कई विकल्प हैं लेकिन टीवी और विडियो के दौर में मैंने फिल्मी भांग इतनी ज्यादा खा ली है कि अब फिल्मों का कोई नशा चढ़ता ही नहीं. अब तो घर में छोटे पर्दे अपने सामने फिल्म के लिए तीन घंटे बैठा सकने की क्षमता खो चुके हैं. थोड़ा-बहुत दम नये मल्टीप्लैक्सों में दिखता तो है मगर वहां भी जब तक फिल्म का दमखम मेरे समय और टिकटों की कीमत पर भारी नहीं पड़ता अपन उस ओर रूख नहीं करते.
Comments
A PIECE OF ADVICE FOR OUR PAL HERE:-BACK OFF U SLIMY LITTLE OVERACHIEVER, CYBERSPACE AINT FOR GHAATS LIKE U.
PEACE 2 ALL.
PAPA BEAR MUMBAI