विश्वनाथ सचदेव
लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार और नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक हैं.
तीस-चालीस साल पुरानी हो चुकी यह बात। तब मैं नागपुर विश्वविद्यालय में पढ़ता था। जिस हॉस्टल में मैं रहता था, उसमें कई राज्यों के विद्यार्थी थे। सवेरे सबको जल्दी होती थी। गुसलखाने में रोज लाइन लगती थी। गर्म पानी के लिए सिर्फ एक गीजर था। अक्सर झड़प भी हो जाती थी। पर वह झड़प वहीं तक सीमित होती थी। नहा-धोकर फिर सब साथ हो जाते थे। किसी को किसी की 'दादागिरी' से शिकायत नहीं रहती थी। चालीस साल पुरानी ये बातें मुझे मुम्बई के जे.जे. अस्पताल में डॉक्टरी पढ़ रहे विद्यार्थियों के संदर्भ में याद आ रही हैं। हाल ही में यहां भी गर्म पानी पर विवाद हो गया था। पहले भी होता होगा ऐसा विवाद, पर इस बार मामला तूल पकड़ गया।
सुना है, कुछ विद्यार्थी फरियाद लेकर शिवसेना के बागी नेता राज ठाकरे के पास जा पहुंचे। उन्हें शिकायत थी कि बाहरी राज्यों के, खासकर बिहार के, विद्यार्थी झगड़ा करते हैं। राज को इन दिनों मुद्दों की जरूरत है। वे तत्काल हस्तक्षेप के लिए तैयार हो गए। राज के प्रतिद्वंद्वी उद्धव को भी भनक लगी। मराठी माणूस का नारा लगाते हुए उनके सहयोगी राज से पहले ही 'मदद' के लिए वहां जा पहुंचे। बीजेपी को भी लगा, स्थिति का राजनीतिक फायदा उठाया जा सकता है, सो प्रमोद महाजन ने घोषणा कर दी कि बिहार से आए विद्यार्थियों को 'दादागिरी नहीं करनी चाहिए'। उन्होंने इस संदर्भ में बिहारियों को अफ्रीकियों के साथ भी जोड़ दिया। कांग्रेस में नए-नए शामिल हुए पूर्व शिवसैनिक संजय निरुपम भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, सो उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन किया। महाजन को लताड़ा। बिहार के नए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भला कैसे चुप रहते। उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को संदेश भेजा- बिहारी विद्यार्थियों की रक्षा करो। इस बीच पुलिस ने कुछ उपद्रवी विद्यार्थियों को गिरफ्तार कर लिया था।
अब सवाल यह उठता है कि एक छात्रावास में हुए मामूली विवाद ने यह अखिल भारतीय आकार कैसे ग्रहण कर लिया? और सवाल यह भी है कि चालीस साल पहले ऐसे विवाद अपने आप क्यों सुलझ जाते थे? इन प्रश्नों का एक सीधा सा उत्तर तो यह है कि तब शिवसेना नहीं थी। ऐसा नहीं है कि तब क्षेत्रीयता की बात नहीं होती थी। भूमिपुत्रों के अधिकारों की मांग भी होने लगी थी। लेकिन तब शायद राजनीतिक दलों के सामने मुद्दों का ऐसा अकाल नहीं था, जैसा आज है। तब मुद्दे उठाए जाते थे, अब मुद्दे बनाए जाते हैं। मैं जब नागपुर में पढ़ता था, उसके दो-तीन साल बाद ही शिवसेना का गठन हो गया था। परप्रांतीयों की बात भी करने लगी थी तब वह। लेकिन तब शिवसेना एक गैरराजनीतिक दल थी। तब मराठी माणूस के हितों की बात होती थी, अब मराठी माणूस के नाम पर राजनीति होती है। इसीलिए जे.जे. अस्पताल के हॉस्टल में उठा छोटा सा विवाद एक तथाकथित राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। शिवसेना, बीजेपी, कांग्रेस सब इसे भुनाने की कोशिश में लग गए हैं। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सचाई है कि उद्देश्य राजनीतिक स्वार्थों को साधना है। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह भी है कि विद्यार्थियों को मराठी या बिहारी या पंजाबी के रूप में देखा जा रहा है। देश के हर नागरिक को एक भारतीय के रूप में कब स्वीकार करेंगे हम?
जे.जे. अस्पताल के विद्यार्थियों का विवाद सामने आते ही यह कहा गया कि बिहार के विद्यार्थियों ने हॉस्टल में लगे 'जय महाराष्ट्र' के पोस्टरों को फाड़ कर 'जय बिहार' के पोस्टर लगाए। यदि ऐसा हुआ है तो यह गलत है, लेकिन सवाल यह उठता है कि हॉस्टल में जय महाराष्ट्र के पोस्टर लगाने की जरूरत क्यों समझी गई? महाराष्ट्र में रहने वाले हर व्यक्ति का संकल्प जय महाराष्ट्र होना चाहिए। जैसे जयहिंद हम सबका नारा है, वैसे ही जय महाराष्ट्र भी हम सबका है। न इसका अपमान होना चाहिए, न इस भावना को कम आंका जाना चाहिए। लेकिन यदि इस आशय के पोस्टर मुम्बई में रहने वालों के बीच दीवारें उठाते हैं तो कहीं जरूर कुछ गड़बड़ है। आज जरूरत इस गड़बड़ पर उंगली रखने की है। जय महाराष्ट्र और जय बिहार में कहीं कोई विरोध नहीं होना चाहिए। दोनों की जय में ही भारत की जय निहित है। इसलिए यह कामना राजनीति का मोहरा नहीं बननी चाहिए।
यह एक संयोग हो सकता है कि जब मुम्बई में बिहारी विद्यार्थियों को विवाद का मुद्दा बनाया जा रहा था, तभी असम में एक और विद्यार्थी सेना बन रही थी- गैर असमियों का विरोध करने के लिए। यह कोई छुपा रहस्य नहीं कि असम में गैर असमियों के विरुद्ध आंदोलन कुल मिलाकर राजनीतिक स्वार्थों की लड़ाई ही है। महाराष्ट्र में भी भूमिपुत्रों के हितों की लड़ाई राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने का माध्यम ही बनी। वोट बैंक की इस राजनीति से कुछ व्यक्तियों-दलों को भले ही लाभ होता हो, पर देश घाटे में ही रहता है। बहुत पुरानी नहीं हुई है वह बात, जब कल्याण स्टेशन पर बिहार, यूपी आदि से नौकरी की तलाश में आए युवाओं को पीटा गया था। वह घटना भारतीयता के गाल पर एक तमाचा थी। तब राजनीतिक ताकत बढ़ाने की कोशिश हुई थी, अब राजनीतिक ताकत बनाने की कोशिश हो रही है। इस बात का ध्यान कोई नहीं रखना चाहता कि इस कोशिश में देश की ताकत कमजोर हो रही है। हमारे राजनेताओं और दलों को पूरा अधिकार है अपनी-अपनी ताकत बनाने-बढ़ाने का। लेकिन देश को कमजोर बनाने का अधिकार किसी को नहीं है। महाराष्ट्र या बिहार या असम की जय तभी हो सकती है, जब देश की जय हो। इसलिए देश का हित सर्वोपरि है। जाने-अनजाने इस हित के विरुद्ध जो भी कदम उठता है, वह अपराध है।
नहाने के लिए गर्म पानी के नाम पर शुरू हुए छोटे से विवाद में राजनीतिक स्वार्थों को साधने की संभावनाएं तलाशने वाली मानसिकता के खिलाफ एक अभियान की आवश्यकता है। और इस अभियान का पहला कदम होगा राजनेताओं से यह कहना कि कृपया हमें अपनी राजनीति का मोहरा न बनाइए। कृपया अपने स्वार्थों के लिए नहीं, देश के हित के लिए राजनीति कीजिए।
(नवभारत टाइम्स से साभार)
लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार और नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक हैं.
तीस-चालीस साल पुरानी हो चुकी यह बात। तब मैं नागपुर विश्वविद्यालय में पढ़ता था। जिस हॉस्टल में मैं रहता था, उसमें कई राज्यों के विद्यार्थी थे। सवेरे सबको जल्दी होती थी। गुसलखाने में रोज लाइन लगती थी। गर्म पानी के लिए सिर्फ एक गीजर था। अक्सर झड़प भी हो जाती थी। पर वह झड़प वहीं तक सीमित होती थी। नहा-धोकर फिर सब साथ हो जाते थे। किसी को किसी की 'दादागिरी' से शिकायत नहीं रहती थी। चालीस साल पुरानी ये बातें मुझे मुम्बई के जे.जे. अस्पताल में डॉक्टरी पढ़ रहे विद्यार्थियों के संदर्भ में याद आ रही हैं। हाल ही में यहां भी गर्म पानी पर विवाद हो गया था। पहले भी होता होगा ऐसा विवाद, पर इस बार मामला तूल पकड़ गया।
सुना है, कुछ विद्यार्थी फरियाद लेकर शिवसेना के बागी नेता राज ठाकरे के पास जा पहुंचे। उन्हें शिकायत थी कि बाहरी राज्यों के, खासकर बिहार के, विद्यार्थी झगड़ा करते हैं। राज को इन दिनों मुद्दों की जरूरत है। वे तत्काल हस्तक्षेप के लिए तैयार हो गए। राज के प्रतिद्वंद्वी उद्धव को भी भनक लगी। मराठी माणूस का नारा लगाते हुए उनके सहयोगी राज से पहले ही 'मदद' के लिए वहां जा पहुंचे। बीजेपी को भी लगा, स्थिति का राजनीतिक फायदा उठाया जा सकता है, सो प्रमोद महाजन ने घोषणा कर दी कि बिहार से आए विद्यार्थियों को 'दादागिरी नहीं करनी चाहिए'। उन्होंने इस संदर्भ में बिहारियों को अफ्रीकियों के साथ भी जोड़ दिया। कांग्रेस में नए-नए शामिल हुए पूर्व शिवसैनिक संजय निरुपम भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, सो उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन किया। महाजन को लताड़ा। बिहार के नए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भला कैसे चुप रहते। उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को संदेश भेजा- बिहारी विद्यार्थियों की रक्षा करो। इस बीच पुलिस ने कुछ उपद्रवी विद्यार्थियों को गिरफ्तार कर लिया था।
अब सवाल यह उठता है कि एक छात्रावास में हुए मामूली विवाद ने यह अखिल भारतीय आकार कैसे ग्रहण कर लिया? और सवाल यह भी है कि चालीस साल पहले ऐसे विवाद अपने आप क्यों सुलझ जाते थे? इन प्रश्नों का एक सीधा सा उत्तर तो यह है कि तब शिवसेना नहीं थी। ऐसा नहीं है कि तब क्षेत्रीयता की बात नहीं होती थी। भूमिपुत्रों के अधिकारों की मांग भी होने लगी थी। लेकिन तब शायद राजनीतिक दलों के सामने मुद्दों का ऐसा अकाल नहीं था, जैसा आज है। तब मुद्दे उठाए जाते थे, अब मुद्दे बनाए जाते हैं। मैं जब नागपुर में पढ़ता था, उसके दो-तीन साल बाद ही शिवसेना का गठन हो गया था। परप्रांतीयों की बात भी करने लगी थी तब वह। लेकिन तब शिवसेना एक गैरराजनीतिक दल थी। तब मराठी माणूस के हितों की बात होती थी, अब मराठी माणूस के नाम पर राजनीति होती है। इसीलिए जे.जे. अस्पताल के हॉस्टल में उठा छोटा सा विवाद एक तथाकथित राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। शिवसेना, बीजेपी, कांग्रेस सब इसे भुनाने की कोशिश में लग गए हैं। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सचाई है कि उद्देश्य राजनीतिक स्वार्थों को साधना है। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह भी है कि विद्यार्थियों को मराठी या बिहारी या पंजाबी के रूप में देखा जा रहा है। देश के हर नागरिक को एक भारतीय के रूप में कब स्वीकार करेंगे हम?
जे.जे. अस्पताल के विद्यार्थियों का विवाद सामने आते ही यह कहा गया कि बिहार के विद्यार्थियों ने हॉस्टल में लगे 'जय महाराष्ट्र' के पोस्टरों को फाड़ कर 'जय बिहार' के पोस्टर लगाए। यदि ऐसा हुआ है तो यह गलत है, लेकिन सवाल यह उठता है कि हॉस्टल में जय महाराष्ट्र के पोस्टर लगाने की जरूरत क्यों समझी गई? महाराष्ट्र में रहने वाले हर व्यक्ति का संकल्प जय महाराष्ट्र होना चाहिए। जैसे जयहिंद हम सबका नारा है, वैसे ही जय महाराष्ट्र भी हम सबका है। न इसका अपमान होना चाहिए, न इस भावना को कम आंका जाना चाहिए। लेकिन यदि इस आशय के पोस्टर मुम्बई में रहने वालों के बीच दीवारें उठाते हैं तो कहीं जरूर कुछ गड़बड़ है। आज जरूरत इस गड़बड़ पर उंगली रखने की है। जय महाराष्ट्र और जय बिहार में कहीं कोई विरोध नहीं होना चाहिए। दोनों की जय में ही भारत की जय निहित है। इसलिए यह कामना राजनीति का मोहरा नहीं बननी चाहिए।
यह एक संयोग हो सकता है कि जब मुम्बई में बिहारी विद्यार्थियों को विवाद का मुद्दा बनाया जा रहा था, तभी असम में एक और विद्यार्थी सेना बन रही थी- गैर असमियों का विरोध करने के लिए। यह कोई छुपा रहस्य नहीं कि असम में गैर असमियों के विरुद्ध आंदोलन कुल मिलाकर राजनीतिक स्वार्थों की लड़ाई ही है। महाराष्ट्र में भी भूमिपुत्रों के हितों की लड़ाई राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने का माध्यम ही बनी। वोट बैंक की इस राजनीति से कुछ व्यक्तियों-दलों को भले ही लाभ होता हो, पर देश घाटे में ही रहता है। बहुत पुरानी नहीं हुई है वह बात, जब कल्याण स्टेशन पर बिहार, यूपी आदि से नौकरी की तलाश में आए युवाओं को पीटा गया था। वह घटना भारतीयता के गाल पर एक तमाचा थी। तब राजनीतिक ताकत बढ़ाने की कोशिश हुई थी, अब राजनीतिक ताकत बनाने की कोशिश हो रही है। इस बात का ध्यान कोई नहीं रखना चाहता कि इस कोशिश में देश की ताकत कमजोर हो रही है। हमारे राजनेताओं और दलों को पूरा अधिकार है अपनी-अपनी ताकत बनाने-बढ़ाने का। लेकिन देश को कमजोर बनाने का अधिकार किसी को नहीं है। महाराष्ट्र या बिहार या असम की जय तभी हो सकती है, जब देश की जय हो। इसलिए देश का हित सर्वोपरि है। जाने-अनजाने इस हित के विरुद्ध जो भी कदम उठता है, वह अपराध है।
नहाने के लिए गर्म पानी के नाम पर शुरू हुए छोटे से विवाद में राजनीतिक स्वार्थों को साधने की संभावनाएं तलाशने वाली मानसिकता के खिलाफ एक अभियान की आवश्यकता है। और इस अभियान का पहला कदम होगा राजनेताओं से यह कहना कि कृपया हमें अपनी राजनीति का मोहरा न बनाइए। कृपया अपने स्वार्थों के लिए नहीं, देश के हित के लिए राजनीति कीजिए।
(नवभारत टाइम्स से साभार)
Comments
ही यह सतही देशभक्ति है।मेरा खाता बिहार में बैंक आफ इंडिया में है जिसका मुख्यालय बम्बई में है और जैसा कि आप सब जानते हैं
बिहार में बैंक का 'डेविड क्रेडिट रेशियो' सबसे कम है।सो अगर बैंक आफ इंडिया और उससे निवेश प्राप्त करने वाली कंपनियाँ बम्बई
में ज्यादा कर देती हैं तो थोड़ा बहुत योगदान मेरा भी है।
अतीत की बात तो जाने हीं दें कि रोम की तरह बम्बई भी एक दिन में नहीं बना और उर्वरा भूमि होने के कारण
हमारे बाप-दादाओं ने अंग्रेजों को अधिक कर दिया।
आजादी के बाद खनिज संपदा को लेकर 'भाड़ा समतुल्यीकाण' की जो नीति अपनाई गई वह आपको पता ही होगा।
अगर बिहारी या कहीं के छात्रों ने अपराध किया तो कानून के अनुसार उन्हें सजा दी ही जानी चाहिए,लेकिन
सम्प्रदायवादी आदत के अनुसार व्यक्ति के अपराध के लिए समुदाय को सजा देंगे।
बहरहाल
जय महाराष्ट्र
But the Bihari people should also show some respect to the local culture. The problem with the peoples from north India is that they don't respect the local culture. And this is not specific to Bihari.