बहुत दिनों तक चिट्ठाकारी की दुनिया में अंग्रेजन के इ दहेजुआ नगरी मुम्बई का झंडा उठाये-उठाये हमरा हाथ टटा गया था… बड़ा सकुन मिला जब हमरी कठपिनसिन की जगह प्रमोद भाई और अभय भाई जैसों की शानदार कलम ने ली। लगा जैसा धर्मवीर भारती और राजेन्द्र माथुर मुम्बई की प्रतिष्ठा बचाने मैदान में आ गये हों। हमरी खुशी को तो अभी अंधेरी लोकल की जगह विरार फास्ट की सवारी करनी थी। पता चला कि रफी साहब ने युनुस भाई का रूप धरा है और धीरूभाई की आत्मा अपने कमल शर्माजी के भीतर आ घूसी है।
बड़ी तमन्ना थी इन महानुभवों से मिलने की, मगर दोष मुम्बई की आपाधापी के मथ्थे… इस हाई-प्रोफाइट बैठक से पहले तक सिर्फ धीरू भाई से ही मिल पाया था। वो भी अपने रवि भाई रतलाम वाले की कृपा से। बाकियों से मुलाकात कराने का श्रेय इस बार भी एक गैर-मुम्बइया को ही जाता है। धन्यवाद संजय भाई!
तीन बजे संजय भाई से मेरी मुलाकात हुई… उन्हें दो व्यवसायिक बैठक भी निपटानी थी। इस दोनों बैठकों के खत्म होने तक घड़ी का कांटा शाम के 5.30 बजा चुका था। संजय मायुस हो गये कि अब बाकियों से मुलाकात नहीं हो पायेगी। मैंने एक कोशिश करनी चाही… अभय भाई को फोन लगाया गया और तय हुआ कि एक संक्षित्प्त मुलाकात की संभावना का दोहन किया जाये। दूरी, ट्रैफिक और सवा नौ बजे की ट्रेन के बीच तालमेल बिठाने की जिम्मेदारी मेरी थी… सारा गणित लगाने के बाद मैंने भी अपनी और मुम्बई की इज्जत दाव पर लगा दी। मैं संजय को लेकर अभय भाई के आशियाने की ओर कूच कर गया। अभयजी ने फोन पर कहा था कि युनुस और प्रमोदजी को भी जुटाने की वे कोशिश कर रहे हैं… हालांकि उनके समय से पहुंच पाने की संभावना कम ही दीख रही थी। आपाधापी में संजय से इस संभावना की चर्चा करने से मैं चूक गया। ऑटो रिक्शा में मौका मिला भी तो दूसरी तमाम बातें हुईं मगर अजदक अभी भी फोकस में नहीं था। ट्रैफिक का पीक आवर और संजय भाई को समय पर ट्रेन पकड़वाने के विचार ने मेरे दिमाग का कुछ ज्यादा ही हिस्सा घेर रखा था।
अभय भाई के इलाके के में तो हम पहुंच चुके थे मगर यहां टैफिक का जो हाल था वो हमारा प्रोग्राम चौपट कर सकता था। मैंने संजय से मेहमान होने की हैसियत छीन ली और उनसे रिक्शे से उतर जाने को कहा। बाकी की दूरी दोनों ने पैदल ही नाप दी। माफ करना संजय भाई मेरे पास कोई चारा नहीं था। उमस से दोनों के बुरे हाल थे… घड़ी की सुइयां सात बजाने को थीं… मगर अब हम अभयजी के दरवाजे पर थे। घंटी बजी तो एक साधु टाइप आदमी ने दरवाजा खोला… पहले तो गलत पते पर पहुंचने का अंदेशा हुआ मगर उस साधु के चेहरे पर तैर रहे आथित्य भाव के सामने अंदेशा पानी पर लकीर साबित हुआ।
भीतर आने पर देखा कि दीवान पर एक बड़ी-सी काया ने खासी जगह घेर रखी थी। एक नज़र में पहचाने जाने वाली चीज ये भी नहीं थे… वैसे भी जब अपने ब्लॉग पर फोटू चिपकाकर भी मैं और संजय भाई अगल-बगल होते हुई भी 15 मिनट तक अनजान बने रहे तो भला उन्हें क्या कहा जाये जिन्होंने अपनी छवि के लिए हमारे दिमाग पर भरोसा करने का जोखिम लिया हो। अरे जनाब ये अज़दक वाले प्रमोद सिंह थे। मेरे भोथरे दिमाग ने उनको अब तक महज 35-36 का मान रखा था वो तो पूरे 46 के निकले। पता चला कि युनुस भी घर से इधर की ओर निकल चुके हैं।
अभयजी ने पहिले ही बता दिया था कि भाभीजी घर पर नहीं है लिहाजा हमें उनके हाथ की ही चाय पीने पड़ेगी… मगर अभी वे वादे से मुकर गये और हमें चाय नहीं पिलाई। नाराज़ न हो भई… बड़े प्यारे इनसान है वो। मौसम की मिजाज को देखते हुई उन्होंने हमारे सामने चाय के बदले शरबत पेश की। गला तर हुआ हमारा… ।युनुस भाई की हाज़िरी अब तक नहीं लगी थी मगर घड़ी के कांटें को ये बात कहां मालूम थी। मन मसोसकर निकला तय हुआ लेकिन इससे पहिले इस शिखर बैठक के कुछ सबूत जुटाये गये यानी जल्दी-जल्दी एक-दूसरे की तस्वीरें उतारी गई… फिर झोरा-बोरा समेटा गया। अभी बिंल्डिंग से बाहर निकले ही थे कि अहो भाग्य हमारे… मेरे रफी साहब यानी युनुस मियां की सवारी बस पधारी ही थी। समय तो था नहीं संजय भाई के पास लंबी बातचीत के लिए… मगर न से तो कुछ भला।
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हम जाते जाते बरसात दे गये थे आपको.