Sunday, December 18, 2005

सवेरा होगा

कुछ दूर, नहीं बहुत पास
कुछ है, कुछ है वहां
एक आकृति कुछ धुंधली-सी
इधर ही आती
नहीं, मैं ही चलूं वहां
देखूं तो क्या वही है
जिसकी है तलाश मुझे
अरे! यह घुप अंधेरा कहां से आया
कहां गई वो
शुरू फिर वही तलाश
जरूर कोई बात है
तभी तो आई ये अमावस-सी रात है
शायद मुझे रोशनी की तलाश है
वह आकृति नहीं भटकाव था
डगमगाया तभी तो मेरा पांव था
होगी एक नई सुबह
न आकृति होगी... न अंधेरा होगा...
सिर्फ सवेरा होगा...

1 comment:

Information Junkie said...

Very nice poem. Thank you for posting it.

http://onlyMumbai.blogspot.com