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Showing posts from June, 2005

क्या आपके पास देश के लिए दस मिनट है?

आपातकाल और ब्लॉग की दुनिया

आज से तीस साल पहले (तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था) आज की ही रात भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की सबसे स्याह रात साबित हुई थी. जी हां मैं आपातकाल की ही बात कर रहा हूं. शुक्र है हमारी पिछली पीढ़ी ने अपनी जागरूकता की रोशनी से उस अंधेरे को हम तक पहुंचने से पहले ही खत्म कर दिया. आज हम जो ये अपनी ब्लॉग की दुनिया बनाए बैठे हैं, कहीं न कहीं इसका श्रेय उनको ही जाता है. बोलने की आजादी के लिए लड़ी गई उस लड़ाई को याद करने का यह सही मौका है. ब्लॉग जगत के हमारे कई साथी तो उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व भी करते हैं उनसे मेरा आग्रह है कि उन दिनों के अपने अनुभवों को हमारी पीढ़ी की संग बांटें. वैसे ये मुद्दा विश्व स्तर आज भी प्रासांगिक है. अभी हाल ही में Microsoft China ने चीनी ब्लॉग जगत में सेंसरशिप लगा ही दिया है. Microsoft censors Chinese blogs

बेवफाई

इश्क का सफर ये कैसा ना शुरू की ख़बर ना आखिर का गुमां हो रास्ते में आपका साथ था बस यही एक अरमां सुना था... हर रिश्ते का जरूरी होता है इक नाम आप माशूक हैं हमारे हमने भी कह डाला सरेआम पड़ते ही नाम हुआ ये अंजाम कि बाकी है अब पकड़ना महज इक जाम बड़े-बुढ़े ठीक कहा करते सुनी-सुनाई बातों पर यकीन ना कर अच्छी भली ख़्वाहिश आज बेवफा-सी तो ना लगती

मुम्बई के सच्चे सिपाही

पिछले एक हफ्ते से मुम्बई में हो रही भारी बारिस कहीं तेज रफ्तार शहर की गति को धीमा न कर दे इसी जद्दोजहद में कुर्ला स्टेशन के नजदीक लगे हुए हमारे कर्मठ रेलकर्मी. ( चित्र: बी.एल.सोनी ) mid-day

हिंदी की हालत

यह सुनकर बड़ा अच्छा लगता है कि हिंदी एक जीवंत भाषा है, लेकिन दिल से आह निकल जाती है, जब किसी मृत होती भाषा के शुरुआती लक्षण हिंदी में भी दीख पड़ते हैं. इस स्थिति के लिए भाषाई कारण कम, राजनैतिक कारण अधिक उत्तरदायी हैं. इन कारणों का विश्लेषण करना मैं नहीं चाहता. मुझे हिंदी की जीवनी शक्ति पर पूरा भरोसा है. डर है तो सिर्फ हिंदी के उन तथाकथित समर्थकों से, जो हिंदी के विकास के नाम पर हिंदी की ही जड़ खोदने में लगे हैं. दो सौ वर्षों की गुलामी के दौरान अंग्रेजी के भाषायी साम्राज्यवाद की शिकार रही हिंदी का, आजादी के बाद पोषण के बदले इन कथित हिंदी समर्थकों ने हिंदी की सहयोगी भाषाओं (जिन्हें उन्होंने बोली कहा है) के शोषण का कुचक्र शुरू कर दिया. ये हिंदी की अपनी ही जड़ों में मठ्ठा डालनेवाली बात हो गयी. आज जरुरत इस बात की है कि हिंदी की सहयोगी भाषाओं का स्वतंत्र विकास सुनिश्चित किया जाए, इससे अंततोगत्वा हिंदी न केवल राष्ट्रभाषा, वरन विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर होगी.

धूम्रपान दृश्यों पर 2 अक्टूबर से प्रतिबंध

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और सूचना मंत्रालय की बैठक के बाद यह फ़ैसला हुआ है कि दो अक्टूबर से फ़िल्मों और टीवी में धूम्रपान के दृश्यों पर प्रतिबंध लागू हो जाएगा. और जानिए... >सिनेमा और टीवी के पर्दे पर सिगरेट के इस्तेमाल पर लगी रोक बेशक एक सराहनीय कदम है लेकिन धूम्रपान से होने वाले नुक़सानों के ख़िलाफ़ ऐसे क़दम तब तक नाकाफ़ी ही साबित होंगे जब तक कि इसकी जड़ यानी कि इसके निर्माण पर रोक न लगाई जाए. भला नैतिकता का यह कैसा पाठ कि एक तरफ तो हमारी सरकार ऐसी पाबंदियों कि बात करती है वहीं दुसरी तरफ तम्बाकू उद्योग से प्राप्त होने वाले भारी राजस्व को भी छोड़ना नहीं चाहती.

'ख़ास' और 'आम' कानून

अगर आप मानते हैं कि राजे-रजवाड़े बीते दिनों की बातें हैं तो आप मुगालते में हैं. यकीन न हो तो किसी पुराने नवाब या नये नवाबजादों की सनक के रास्ते आकर देखिए. भारत में अक्सर 'ख़ास' लोगों के आपराधिक मामलों में फंसने की ख़बर आती है, कभी दलेर मेंहदी, सलमान ख़ान, तो कभी मंत्रिपद संभाल रहे शिबू सोरेन की. इन दिनों सुर्खियों में है टाइगर मंसूर अली ख़ां पटौदी और टाइम पत्रिका में नाम दर्ज करवानेवाले पटना के पूर्व ज़िलाधीश गौतम गोस्वामी. अगर आप आम आदमी हैं तो पुलिस बिना बात के भी आपको उठाकर ले जा सकती है. ख़ास हैं तो फिर डरने की क्या बात है. मजे से अपराध कीजिए, फुरसत मिले तो अग्रिम जमानत ले लीजिए. वैसे जब तक न मिले तब तक अंडरग्राउंड रह सकते हैं. पुलिसवाला आपके घर आपकी दावत में बतौर मेहमान आयेगा जरूर, मगर क्या मजाल जो आपको पहचान जाए. सिर पर घोषित इनाम का बुरा तो आम लोग मानते हैं. ख़ास तो इसे सिर का ताज मानते हैं. वाह ताज! वैसे अमेरिका की नकल में भले हमारा कोई सानी नहीं, मगर इस मामले में? स्वदेसी आंदोलन जिंदाबाद! भले ही अमेरिकी पुलिस अपनी एक 'ख़ास' हस्ती, मशहूर अभिनेता रसेल क्रो, को सारी द...

खाली हाथ

न देख इन हाथों को इस कदर हिकारत से गर मिल जाए एक पत्थर भी इसे भगवान बना देते हैं सजदा करता है तू जिन जवाहरात का कभी पड़े थे इन्हीं हाथों में एक पत्थर की तरह

विक्षिप्त है वर्तमान

विक्षिप्त है वर्तमान बता इतिहास किसने किया इसका अपमान जन्मा तो यह तेरे ही कोख से था मासूम, अबोध, नादान आह्लादित था भविष्य देख इसकी मुस्कान विक्षिप्त है वर्तमान इतिहास कहता है: मैं हूं इसका साक्षी मुझे है इस सब का ज्ञान सुनों दोषियों के षडयंत्र की दास्तान पर रे भविष्य तू क्यों रोता है पाया क्या था जो तू खोता है पूछ मुझ इतिहास से दर्द क्या होता है देखा है मैंने ईमान को लुटते हुए सत्य के अरमान को घुटते हुए यह वर्तमान जो तुझ तक पहुंचा है कोशिश इसने भी कम न की थी लेकिन अतीत पर दोषारोपण से बच न सका तभी तो विक्षिप्त है वर्तमान

ये धंधा है...

माइक्रोसॉफ़्ट ने इंडोनेशिया को रियायत दी... देना ही पड़ेगा बिल भइया, क्या करोगे ये धंधा है... धंधे में रहना है तो पंगे नहीं लेने का. अमरीकी सॉफ़्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ़्ट ने सरकारी दफ़्तरों में अपने जाली उत्पादों के इस्तेमाल के मामले में इंडोनेशिया के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करने का फ़ैसला किया है. माइक्रोसॉफ़्ट और इंडोनेशिया सरकार के बीच सहमति बन गई है. bbc

जिन्ना बनाम आडवाणी

पता नहीं क्यों भाजपा और संघ परिवार के मुद्दे अक्सर भावनात्मक ही क्यों होते हैं. क्या फर्क पड़ता है यदि आडवाणी ने जिन्ना को 'धर्मनिरपेक्ष नेता' कह दिया. इसे तो मैं भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का इतिहास के प्रति दुराग्रहों के खुलते गांठ के रूप में देखता हूं. दो देशों के रिश्तों में सुधार के लिए यदि तथाकथित विचारधारा (अहं) से थोड़ा उन्नीस-बीस होना भी पड़े तो भी यह घाटे का सौदा नहीं होगा. पर हां, ऐसी ही उम्मीद हमें पाकिस्तान के दक्षिणपंथियों से भी होगी. BBC

पर्दे पर कश की कशमकश

कभी-कभी किसी समस्या से निपटने की सरकारी कोशिश किसी कॉमेडी फिल्म के सीन-सा मालूम पड़ती है. फ़िल्म, टीवी और विज्ञापनों में सिगरेट या किसी भी तरह के तम्बाकू उत्पाद के इस्तेमाल पर रोक का सरकारी फरमान भी ऐसा ही जान पड़ता है. हो सकता है इसके पीछे नीयत अच्छी हो, मगर यह निहायत ही अव्यवहारिक फैसला है. इसमें कोई शक़ नहीं कि फिल्म और टीवी का समाज पर व्यापक प्रभाव है. समाज में असली नायकों के अभाव में पर्दे के नायक ही रोल मॉडलों भूमिका में भी आ गये हैं. ऐसे में पर्दे पर इनकी हरकतों का युवा वर्ग पर प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता. समझने वाली बात यह है कि ये नायक नहीं बल्कि पर्दे पर समाज का ही प्रतिबिंब मात्र हैं. इनसे आदर्श छवि की उम्मीद ख़्याली पुलाव के सिवा और कुछ नहीं. रही बात तम्बाकू के कुप्रभावों से समाज को बचाने की तो उसके लिए ऐसे चोंचलों की नहीं ईमानदार कोशिश की जरुरत है. सरकार अगर वाकई इस मामले में कुछ करने की हसरत रखती है तो उसे चाहिए कि तम्बाकू उत्पादों से प्राप्त होने वाले राजस्व का मोह छोड़े और तम्बाकू व उसके उत्पादों के उत्पादन को प्रतिबंधित करे. या फिर इस सरकारी फिक्र को धुंएं में उड़ता ह...

दर्द

दरख़्त की बेबसी पीले पड़ते पत्तों की जिंदगी टूटे जो साख से दर्द की इंतहां थी

अश्रु

समय का एक पल चुभ गया हृदय में शूल बनकर असह्य वेदना देख हृदय की अश्रु हुआ विह्वल घड़ी यह उसकी परीक्षा की खुली पलकों की खिड़की नम पुतलियों का छूटता आलिंगन काजल की चौखट को कर पार ठपकी बूंद बनकर कपोल पर चुभ गया यह विरह का एक पल बनकर हरा रहेगा घाव सदा अश्रु का कपोल पर सूख भले ही बूंद जाए