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हिंदी की हालत

यह सुनकर बड़ा अच्छा लगता है कि हिंदी एक जीवंत भाषा है, लेकिन दिल से आह निकल जाती है, जब किसी मृत होती भाषा के शुरुआती लक्षण हिंदी में भी दीख पड़ते हैं. इस स्थिति के लिए भाषाई कारण कम, राजनैतिक कारण अधिक उत्तरदायी हैं. इन कारणों का विश्लेषण करना मैं नहीं चाहता. मुझे हिंदी की जीवनी शक्ति पर पूरा भरोसा है. डर है तो सिर्फ हिंदी के उन तथाकथित समर्थकों से, जो हिंदी के विकास के नाम पर हिंदी की ही जड़ खोदने में लगे हैं. दो सौ वर्षों की गुलामी के दौरान अंग्रेजी के भाषायी साम्राज्यवाद की शिकार रही हिंदी का, आजादी के बाद पोषण के बदले इन कथित हिंदी समर्थकों ने हिंदी की सहयोगी भाषाओं (जिन्हें उन्होंने बोली कहा है) के शोषण का कुचक्र शुरू कर दिया. ये हिंदी की अपनी ही जड़ों में मठ्ठा डालनेवाली बात हो गयी. आज जरुरत इस बात की है कि हिंदी की सहयोगी भाषाओं का स्वतंत्र विकास सुनिश्चित किया जाए, इससे अंततोगत्वा हिंदी न केवल राष्ट्रभाषा, वरन विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर होगी.

Comments

शशि भाई , ये बात समझ मे नही आई ।

मेरे समझ मे नही आया कि हिन्दी कैसे अपनी बोलियों के जड मे मट्ठा डाल रही है । एक तरफ़ आप कह रहे हैं कि वह खुद फटेहाल है और दूसरी तरफ़ दूसरी बात कह रहे हैं । कोई चीज फ़ैलती है तो जगह तो घेरती ही है । क्या आप चाहते हैं कि बच्चा तो मोटा-तगडा पैदा हो पर पेट बडा न दीखे ?

कोई बेहतर हल सुझाइये ना !

अनुनाद
SHASHI SINGH said…
अनुनादजी,
हिंदी किसी की जड़ों में मट्ठा नहीं डाल रही बल्कि मट्ठा तो हिंदी की जड़ों में डाली जा रही है वह भी उसके समर्थकों (तथाकथित) द्वारा. मेरा यह मानना है कि हिंदी पर जिम्मेदारियों का बोझ कुछ ज्यादा ही लाद दिया गया है. मैं उस बोझ को कम करने की बाबत बात कर रहा हूं. अच्छा मैनेजर तो वह है जो अपने मातहतों की क्षमताओं का भरपूर इस्तेमाल करे. ऐसा नहीं होने की स्थिति में मातहत भी कुंठित और मैनेजर की तरक्की तो खैर भूल ही जाइये. यही हो रहा है हमारी प्यारी हिंदी और भोजपुरी, मैथिली, ब्रजभाषा व अवधी जैसी उनकी होनहार बहिनों के साथ (हिंदी की बहिनों को मैं 'बोली' नहीं बल्कि 'लोकभाषा' कहना ज्यादा पसंद करूंगा). यदि हमारे घरों और क्षेत्रीय स्तर पर संपर्क की जिम्मेदारी लोकभाषाओं पर छोड़ दिया जाए तो लोकभाषाएं तो समृद्ध होंगी ही हिंदी भी अपनी क्षमताओं का बेहतर इस्तेमाल करने में खुद को समर्थ पाएगी.
मतलब यह कि पुराने नजरिये में थोड़ा सुधार कर लिया जाए तो गुजराती के पड़ोसी ब्रजभाषा से लेकर बंगला के बगल में मैथली तक हर लोकभाषा (बोली) आत्मनिर्भर बन पाएंगी. लोकभाषाओं के बीच क्षेत्रीय जिम्मेदारियों का बंटवारा हो जाने से हिंदी सिर्फ उत्तर भारत की भाषा होने की संकुचित पहचान से भी मुक्त हो पाएगी. तब पूरी ईमानदारी व आत्मगौरव के साथ हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में उत्तर से दक्षिण तक अंग्रेजी के एक सर्वमान्य विकल्प के तौर पर पेश किया जा सकता है.

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