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Showing posts from July, 2005

तबाही के मंजर पर मुम्बईया हौसले की जीत

ऐसा मंजर जो कल तक ख़्वाबों की हद में भी नहीं था, आज हकीकत बन हम सब को दहला गया. एक तरफ मुम्बई महानगर सदी की सबसे भयानक बारिश की मार झेल रहा था तो दूसरी तरफ समुद्र के बीच मुम्बई हाई में लपटों का कहर टूट पड़ा. इन दोनों घटनाओं को जब हम एक साथ देखते हैं, तो अपने भीतर गहराई तक पीड़ा का अहसास घर कर जाता है. मुम्बई में 24 घंटों के दौरान लगभग सौ सेंटीमीटर पानी बरस पड़ा. ऐसे समय, जब समन्दर में ज्वार उठा हो, शहर को डूबना ही था. इस आपदा ने देश की आर्थिक राजधानी को पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर दिया है. जिंदगी को पटरी पर आने में कुछ समय लगेगा और नुकसान के घाव भी धीरे-धीरे ही भर पाएंगे. एक मुम्बईकर होने के नाते इतना तो यकीन है कि मुम्बई बहुत जल्द अपने पुराने रंग में लौट आयेगी. प्रधानमंत्री का मुम्बईकरों के जज्बे को सलाम करना मेरे इस यकीन को बल देता है. सबसे बड़ी बात तो काबिलेगौर है कि बाढ़, बारिश और अंधकार के उन क्षणों में भी मुम्बईकरों ने धीरज नहीं छोड़ा और गुस्से से परहेज किया. इस बात को न सिर्फ मुम्बई के आकाओं बल्कि केंद्र की सरकार द्वारा भी कद्र की जानी चाहिए. मुम्बई में बारिश की तस्वीरें

भारी बरसात से मुम्बई में अफरा-तफरी का माहौल

आज मुम्बई में मौसम की सबसे जोरदार बारिश हुई है जो अभी लगातार जारी है. जिससे शहर की व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है. अभी रात के 11.30 बजे भी सड़कों पर है गाड़ियों की लम्बी कतारें और हैरान-परेशान लोग. यहां की जीवन रेखा कहीं जाने वाली लोकल ट्रेनों की रफ्तार भी धीमी पड़ गई है. रफ्तार के इस शहर में मानो सबकुछ थम-सा गया है. यहां लोग 40-50 किलोमीटर दूर घंटे-डेढ़ घंटे का सफर कर काम करने मध्य और दक्षिण मुम्बई की ओर आते हैं. यूं तो छिटपुट बारिश पिछले दो-तीन दिनों से हो रही है मगर आज दिन की बारिश में सबकुछ अस्त-व्यस्त कर दिया. यहां तक कि कुछ घंटों के लिए फोन सेवाएं भी बुरी तरह बाधित रहीं. सुबह तक तो लगभग सबकुछ ठीक था. मगर शाम तक कई इलाकों में रेलवे ट्रैक और सड़कों पर पानी भर गया जिससे स्टेशनों पर भारी भीड़ और सड़कों पर गाड़ियों की कतारें दिखने लगी. मेरा घर भी लोअर परेल स्थित मेरे ऑफिस से घंटे भर की दूरी पर है, इसीलिए मैं तो शाम को ही द्फ्तर के पास ही रहने वाले एक दोस्त के घर जा पहुंचा. वहां मीडिया वाले कुछ और दोस्त धमके हुए थे. सबके अलग-अलग सूत्रों से अलग-अलग तरह की ख़बरे मिली. रात को जब फोन सेवाएं बहाल ...

डर हमारी जेबों में

प्रमोद कुमार तिवारीजी के उपन्यास 'डर हमारी जेबों में' का अंश पढ़िये. बड़ा खूबसूरत और मार्मिक है यह... वैसे तो उपन्यास कुछ पुराना है लेकिन इस बार कथा, यूके ने इसे इंदु शर्मा-2005 पुरस्कार से सम्मानित करने का फ़ैसला किया है और इसी से यह पुस्तक एक बार फिर प्रासंगिक हो गई है. उपन्यास के अंश के लिए यहां क्लिक करें.

प्रेमकंद बनाम प्रेमचंद

(पिछले आलेख " प्रेमचंद का बॉयोडाटा " के संदर्भ में) कन्फ्युजियाइये मत स्वामीजी , ई न टाईपो है आउर न ह्युमर है, ई तो हमरा आपन मिस्टेक बुझा रहा है. अभी ठीक किये देते हैं. वैसे हमको हमरा विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि श्री प्रेमचंदजी अपनी आत्मा हमरा भीतर प्रवेश करवाकर हमरा से ई ग़लती करवाएं हैं. अभी भाया चित्रगुप्तजी हम प्रेमचंदजी से संपर्क करने का कोशिश किया. वहां से एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिये स्पष्टीकरण आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि उ चैनल बाबू के लिए का प्रेमचंद?.. का प्रेमकंद आउर का शकरकंद?... सब धन बाइस पसेरी. इसीलिए प्रेमचंदजी की आत्मा की इच्छा थी कि चैनल बाबू जैसे लोगों को प्रेमकंद या शकरकंद या चाहे जिसका बायोडाटा भिजवाना हो भिजवा दिया जाए. प्रेमचंद की किताबों के बारे में बिल्कुल न बताया जाए वरना जीते जी तो अब नहीं कह सकते, हां मरते जी फिर से मर जाएंगे. फिर हमने दूबारा निवेदन किया श्री प्रेमचंदजी, इस धरती पर स्वामीजी जैसे लोग भी हैं जो 'प्रेमकंद' के नहीं, 'प्रेमचंद' और उनके साहित्य के रसिक है. निवेदन स्वीकृत हो गया है और अब दुनिया के सामने 'प्रे...

प्रेमचंद का बायोडाटा

बालाजी छाप टी.वी. सीरियलों के बारे में आपके घर में भी बातें जरूर होतीं होंगी. इन सीरियलों को आप नापसंद कर सकते हैं या मुमकिन है आप इनके दीवानें हों लेकिन यह संभव नहीं कि आप इन्हें नजर अंदाज कर सके. तो चलिए आज इस बारे में ही कुछ बात करते हैं. वैसे तो टी.वी. लेखक का माध्यम कहा जाता है. मगर यहां लेखकों की क्या दुर्गति है इसकी एक बानगी पेश-ए-खिदमत है:- आदर्श स्थिति में एक सीरियल बनाने के लिए एक अदद कहानी की जरुरत होती है, फिर इस कहानी पर आधारित कुछ एपिसोड की पटकथा और संवाद की तैयारी होनी चाहिए. इतना होने के बाद लेखक को एक ऐसे साहसी व्यक्ति का समर्थन चाहिए होता है जिसे प्रोड्यूसर कहा जाता है. फिर चैनल वालों को राज़ी करना होता है. अगर इन्हें कहानी पसंद आई तो फिर समझिए गाड़ी चल निकली. ये तो थी आदर्श स्थिति. जबकि हकीकत यह है कि यहां गंगा उलटी बहती है. चैनलों के कर्ता-धर्ता यूं तो दिखते आधुनिक... नहीं शायद मैं कुछ ग़लत कह गया... अत्याधुनिक हैं पर कभी-कभी तो इनके काम का तरीका इतना पौराणिक है कि अपने सरकारी बाबु भी शर्मसार हो जाएं. चलाते तो हिंदी चैनल हैं पर इन चैनल बाबुओं का हिंदी ज्ञान देखकर सारे ...

किनारे बनाम लहरें

लहरें किनारों का अपना अहं है... लेकिन लहरों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. ये तो अठखेलियां करते... किनारों के बीच से अपनी ही धुन में बढ़े चले जाते हैं. एक वक्त... एक गहराई... एक समंदर... जहां किनारों का कोई जोर नहीं, सिर्फ लहरें ही लहरें... चारों ओर लहरें... और किनारे? इस भरम में जीते हैं कि उसने लहरों को बांध रखा है. हकीकत तो यह है कि मगरूर किनारों में इतना जोर नहीं कि वे लहरों में चार कदम उतर कर देखें... डूबने का खतरा जो है. चढ़ती-उतरती लहरों की ताकत है उनकी लय... उनका रिद्म... जिसे आजतक न कोई किनारा तोड़ पाया है और न कभी तोड़ पाएगा. वैसे किनारों का भी दर्द कुछ कम नहीं... जरा इनके दर्द पर गौर फरमाइये साहिल बहते दरिया के मौजों ने की हंसी न जाना खिलखिलाहट ने दर्द-ए-साहिल ये इश्क भी कैसा कि... दीदार का तो इकरार है पर... ताउम्र न मिलने की इक कसम मौजों से कह दो कह दो कि दरिया की गहराई का गुरूर न करे ग़म-ए-आशिकी में साहिल के अश्क़ इतने बह जाएंगे कि... दरिया दुजा बहता देख मौजें भी शर्मसार हो जाएंगी बनकर खुद साहिल साहिल की आशिकी को अंजाम तक पहुंचाएंगी

कुछ भोजपुरी हो जाए

आज भोजपुरी में कुछ लिखे के मन करता... बाकि बुझाते नइखे कि कहां से शुरू कइल जाए. अच्छा चली रामजी के नाव लेके कोलियरी चलल जाव. रउआ लो में से अगर केहू भोजपुरिया होई त उनके यह बात के जरूर ज्ञान होई कि अपना भोजपुरी समाज में कलकत्ता के चटकल के बाद सबसे अधिका प्रभाव कोलियरिये के पड़ल बा. वइसे इ बता दीं कि हमहूं कोलियरिये के गर्दा फांक के सयान भइल बानी. भोजपुरिया समाज के मूल बिहार अ यु.पी. ह बाकि इत्र के सुगंध खानी आज हमनी दुनिया के हर कोना में पाय जाय वाला प्रजाति के जीव हो गइल बानी स. लेकिन जब कोलियरी के बात होता त बिहार से कटके नया बनल राज्य झारखंड चले के पड़ी. वइसे इ अलग बात बा कि यह बंटवारा से कुछ नेताजी लोग के छोड़ के शायदे केहू के भला भइल बा. आज त हालात बहुत बदल गइल बा बाकि पापा (32 साल कोलियरी में नौकरी करके इहे 30 जून के रिटायर भइनी ह) बतावेनी कि पहिले कोलियरी में केहू आवल ना चाहत रहे. गरीबी के मार कहीं भा कौनो आउर मजबुरी भोजपुरी क्षेत्र के आपन किसानी छोड़के लोगन के कोयलांचल के जंगल-झाड़ में आके आपन किस्मत आजमावे के सिलसिला बहुत पुरान ह. सत्तर के दशक में कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद...

मिर्ज़ा असद-उल्लाह ख़ां ग़ालिब की आबरू

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे, कह्ते हैं के ग़ालिब का अंदाज़े बयां और अंदाज़े ग़ालिब: सन 1852 में मिर्ज़ा ग़ालिब को नौकरी का बुलावा आया. दिल्ली कॉलेज में उन्हें फ़ारसी का प्रमुख शिक्षक बनाना था. बहुत बुरी आर्थिक हालत थी. इसीलिए प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. टॉमसन साहब गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया के सेक्रेट्री थे. उन्होंने बुलावा भेजा था. पालकी में बैठकर साहब के बंगले पर मिर्ज़ा ग़ालिब पहुंच गए. अंदर कहलावा भेजा और इंतिज़ार करने लगे, पर टॉमसन साहब उनके स्वागत के लिए बाहर नहीं आए. ग़ालिब के आत्मसम्मान को चोट पहुंची. वे वापस जाने लगे. टॉमसन साहब को उनकी नाराजगी का पता चला, तो बाहर आए. उन्होंने चचा ग़ालिब को समझना चाहा कि इस वक्त वह ख़ास मुलाक़ाती तो हैं नहीं, कि बाहर आकर उनका स्वागत किया जाता, वह तो नौकरी के लिए आए हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब टॉमसन साहब की दलील सुनकर जरा भी नहीं पिघले. उन्होंने तुरंत कहा, "जनाबे आली, अगर नौकरी का मतलब यह है कि इससे इज़्ज़त में कमी आ जाएगी, तो ऐसी नौकरी मुझे मंज़ूर नहीं." उन्होंने आदब बजाया और पालकी में सवार हो लौट पड़े. सौजन्य: दीवान-ए-ग़ालिब बड़े चर्चे हैं इन दिनों हिंदी में...

ये है हमारी गुजरात पुलिस

शर्म इनको मगर नहीं आती... पूरा किस्सा यहां पर

आउउउउ... ... बदले-बदले से शक्ति कपूर

इंडिया टीवी के स्टिंग ऑपरेशन के सदमे ने शक्ति (आउउउउ) कपूर की दिमागी हालत इतनी बिगाड़ दी है कि उन्होंने दूसरों का दिमाग खराब करने का पक्का मन बना लिया है. जी हां, वे लेखक बन गये हैं. अगर उनका लेखन स्टिंग ऑपरेशन से प्रभावित हुआ तब तो तय है कि उनका आउउउउ... साहित्य सिर्फ बड़े बच्चों के लिए ही होगा.

हम-तुम