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प्रेमचंद का बायोडाटा

बालाजी छाप टी.वी. सीरियलों के बारे में आपके घर में भी बातें जरूर होतीं होंगी. इन सीरियलों को आप नापसंद कर सकते हैं या मुमकिन है आप इनके दीवानें हों लेकिन यह संभव नहीं कि आप इन्हें नजर अंदाज कर सके. तो चलिए आज इस बारे में ही कुछ बात करते हैं.
वैसे तो टी.वी. लेखक का माध्यम कहा जाता है. मगर यहां लेखकों की क्या दुर्गति है इसकी एक बानगी पेश-ए-खिदमत है:-
आदर्श स्थिति में एक सीरियल बनाने के लिए एक अदद कहानी की जरुरत होती है, फिर इस कहानी पर आधारित कुछ एपिसोड की पटकथा और संवाद की तैयारी होनी चाहिए. इतना होने के बाद लेखक को एक ऐसे साहसी व्यक्ति का समर्थन चाहिए होता है जिसे प्रोड्यूसर कहा जाता है. फिर चैनल वालों को राज़ी करना होता है. अगर इन्हें कहानी पसंद आई तो फिर समझिए गाड़ी चल निकली.

ये तो थी आदर्श स्थिति. जबकि हकीकत यह है कि यहां गंगा उलटी बहती है. चैनलों के कर्ता-धर्ता यूं तो दिखते आधुनिक... नहीं शायद मैं कुछ ग़लत कह गया... अत्याधुनिक हैं पर कभी-कभी तो इनके काम का तरीका इतना पौराणिक है कि अपने सरकारी बाबु भी शर्मसार हो जाएं. चलाते तो हिंदी चैनल हैं पर इन चैनल बाबुओं का हिंदी ज्ञान देखकर सारे हिंदीप्रेमियों को आत्महत्या करने को जी चाहे.
मेरे एक करीबी के मित्र (प्रतिष्ठित निर्देशक) के पिता (बतौर प्रोड्यूसर) प्रेमचंद की कहानियों पर एक टेली श्रृंखला बनाने का प्रस्ताव लेकर एक टी.वी. चैनल के दफ्तर गये. चैनल में बैठा अत्याधुनिक बाबू (जो खुद को हॉलीवुड के लिए ही पैदा हुआ मानता है) ने प्रोजेक्ट के कॉंसेप्ट नोट के साथ राइटर का प्रोफाइल अटैच करने को कहा. इस पर प्रोड्यूसर ने याद दिलाने की कोशिश की कि यह श्रृंखला लेखक 'प्रेमचंद' की कहानियों पर आधारित है. इस पर चैनल बाबू का जवाब कुछ यूं था, "हां तो ठीक है न, प्रेमचंद को ही बोलो अपना CV मुझे mail कर देगा."

Comments

eSwami said…
हा हा, और वो जो टाईटल मे आप प्रेमचँद को प्रेमकँद लिखे हैं -टाईपो है मिस्टेक है या ह्युमर है? कन्फ्युजिआ गया हूँ!

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