Wednesday, June 08, 2005

जिन्ना बनाम आडवाणी

लालकृष्ण आडवाणी पता नहीं क्यों भाजपा और संघ परिवार के मुद्दे अक्सर भावनात्मक ही क्यों होते हैं. क्या फर्क पड़ता है यदि आडवाणी ने जिन्ना को 'धर्मनिरपेक्ष नेता' कह दिया. इसे तो मैं भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का इतिहास के प्रति दुराग्रहों के खुलते गांठ के रूप में देखता हूं. दो देशों के रिश्तों में सुधार के लिए यदि तथाकथित विचारधारा (अहं) से थोड़ा उन्नीस-बीस होना भी पड़े तो भी यह घाटे का सौदा नहीं होगा. पर हां, ऐसी ही उम्मीद हमें पाकिस्तान के दक्षिणपंथियों से भी होगी.
BBC

3 comments:

Unknown said...

दिक्कत शायद इसलिये है कि यदि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष होता तो आज पाकिस्तान का नामोनिशान न होता।

SHASHI SINGH said...

बिल्कुल सही कहा आपने, लेकिन वो इतिहास है. इतिहास को न हम बदल सकते हैं, न आडवाणी और ही संघ परिवार. हां, भविष्य की कोई योजना हो तो उस पर बहस होनी चाहिए न कि इस बात पर कि आडवाणी ने किसे क्या कहा... और यही चिंता का विषय कि आज गड़े मुर्दे उखाड़ने वालों को ज्यादा मजदूरी मिल रही है.

Jitendra Chaudhary said...

मै आडवानी जी को बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ, वो एक एक शब्द नापतौल और देख परख कर बोलते है, मै नही समझता, कि उन्होने भावावेश मे कुछ कहा है, वे निश्चय ही इतिहास की पर्तो को खोलना चाहते है, जिसमे नेहरू और जिन्ना के मतभेदों का खुलासा होगा. और यदि जिन्ना ने पाकिस्तान के लिये आवाज उठायी थी, उसके लिये अकेले जिन्ना दोषी नही थे, दोषी थी परिस्थितियाँ, जब छोटी से छोटी बात को मनवाने के लिये इतनी जद्दो जहद करनी पड़ती थी, तो एक दिन आता है, जब इन्सान बोलता है कि बस, बहुत हो गया. मै उस समय की परिस्थितियों के लिये खुली राष्ट्रीय बहस के पक्ष मे हूँ, निश्चय ही इससे हमे कुछ ऐसे रहस्यों का पता चलेगा, जो आज तक छिपे हुए है. मै समझता हूँ, इससे किसी को फायदा हो या ना हो, लेकिन कांग्रेस की बहुत किरकरी होनी है. और शायद यही आडवानी का मूल उद्देश्य था.