Sunday, October 09, 2005

नवरात्र माहात्म्य


नवरात्र के महत्व के बारे में दैनिक 'आज' में पूर्व प्रकाशित मेरा आलेख

हिन्दू पंचागके अनुसार आश्विन मासके शुक्ल पक्षकी प्रतिपदा तिथिको नवरात्रिका आरम्भ होता है. शरद ऋतुमें होने के कारण इसे शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है. 'मारकण्डेय पुराण' अध्याय 89 श्लोक 11 में कहा भी गया है कि 'शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी' और 'निर्णयसिन्धु' नामक धार्मिक विवादोंका समाधान करने वाला ग्रंथ भी यही मानता है. परंतु संस्कृतके प्रसिद्ध वैयाकरण नागोजी भट्टने 'वार्षिकी' को वासंती नवरात्र बोधक कहा है. 'निर्णयामृत' और 'समय मयूख' जैसे ग्रंथ भी इसका समर्थन करते हैं.
ऐतिहासिक दृष्टिसे दुर्गापूजाका वर्तमान रूप कमोवेश दो हजार वर्ष पुराना है. षोडश मातृका अर्द्धनारीश्वर और देवीके गलेमें कपालमालाका उल्लेख महाकवि कालिदास कृत 'कुमार संभवम' में भी मिलता है. जिसका समय ईसापूर्व प्रथम शताब्दी है. इस तिथिपर भले ही विवाद हो लेकिन प्रथम-द्वितीय शताब्दीके कुषाण राजा कनिष्कके (या उसके बाद चंद्रगुप्त प्रथमके भी) सिक्कोंपर दुर्गाका वर्तमान रूप मिलता है.
'नवरात्र प्रदीप' में कहा गया है कि यह पूजन नित्य (यानी दैनिक साधना) और काम्य (विशेष कार्यके अनुष्ठान) दोनों ही है. इसी प्रकारसे यह पूजा पर्व और व्रत दोनोंके रूपमें ही रूपमें प्रचलित है. कमलाकार भट्ट अथवा अनन्तदेव जैसे कुछेकको छोड़कर अधिकतर विद्वान इसे सार्वजनिक पूजा मानते हैं जिसे हर जाति-धर्म का व्यक्ति (म्लेच्छ यानी विधर्मी भी) कर सकता है. वैसे इस पर्वको असली सामूहिक सार्वजनिक बनाते हैं पूजा स्थानोंपर लगने वाले मेले ही.
व्रत रूपमें नवरात्रके आरम्भ और अंत की भिन्न-भिन्न सीमाएं बतायी गयी है. 'कलिका पुराण' के आधारपर 'तिथितत्व' नामक ग्रंथ ऐसे 7 भेद का उल्लेख करता है- (1) कृष्ण नवमीसे शुक्ल नवमी तक (2) शुक्ल पक्ष प्रतिपदासे नवमी तक (3) शुक्ल षष्ठीसे नवमी तक (4) शुक्ल सप्तमीसे नवमी तक (5) शुक्ल अष्ठमीसे नवमी तक (6) मात्र शुक्ल अष्टमी (7) मात्र शुक्ल नवमी. चौथे मतका समर्थन 'पुरुषार्थ चिंतामणि', 'कालतत्व विवेचन' और 'चतुर्वर्ग चिंतामणि' जैसे ग्रंथ भी करते हैं. इसीलिए विद्यापति कृत 'दुर्गा भक्ति तरंगिणी' ने देवीके बोधन (जागृत करने) के लिए षष्ठी तिथि तय की है (जब बेलके वृक्ष तले पूजन होता है) और प्राण-प्रतिष्ठाके लिए सप्तमी तिथि. अष्टमीको उपासक दिनमें कुमारी पूजन करते हैं और रातमें जागरण.
दोसे दस वर्षकी कुमारियां क्रमश: कुमारिका, त्रिमुर्त्रि, कल्याणी, रोहिणी, काली, चण्डिका, शांभवी, दुर्गा और सुभद्रा कही गयी हैं जिन्हें नवदुर्गाओंका प्रतीक माना गया है. दुर्गा कवचके अनुसार शैलपुत्री. ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धयात्री ये नवदुर्गाएं हैं. अष्टमीके दिन उपवासका विधान 'कलिका पुराण' (अध्याय 63 श्लोक 16) के अनुसार केवल नि:संतानोंके लिए है. 'लिंगपुराण' सप्तमी, अष्टम, नवमी औअर दशमीके लिए क्रमश: देवीस्थान, पूजन, बलि और होमका विधान करता है. प्रथमाके कलश स्थापनाकी तरह दशमीको निराजन (आरती) और विसर्जन विशेष कर्म है.
'ऋगवेद' प्रथम मंडल सूक्त 162 के श्लोक 21 में चर्चित बलिदानकी व्याख्या रहस्यवादी आध्यात्मिक और तांत्रिक दोनों रूपोंमें हुई है. षायणाचार्यने यज्ञमध्वरमके अनुसार यज्ञको अहिंसक कहा है. 'वाजसनेयी संहिता' (श्लोक 23.16) में यज्ञ पशुकी स्वर्ग प्राप्तिका वर्णन करनेके बाद अगले श्लोक में अग्नि, वायु आदिको यज्ञ पशु कहा गया है. दुसरी ओर 'कालिका पुराण' (श्लोक 71:39), 'मनुस्मृति' (श्लोक 5:61) और 'विष्णु धर्म सूत्र' (श्लोक 51:61) साफ शब्दोंमें पशुवधका तांत्रिक समर्थन करते हैं परंतु घोड़े या हाथीकी बलि वर्जित है.
देवीके विग्रहको लेकर भी पर्याप्त मतांतर है. उनके हाथोंकी संख्या 'वराहपुराण' में 20, देवी भागवतमें 18, हेमाद्रि और विद्यापति द्वारा 8 या 10, विराट पर्व (महाभारत) में युधिष्ठिर द्वारा 4 बतायी गयी है.
हेमाद्रि विरचित ग्रंथ 'चतुर्वर्गचिंतामणि' में षष्ठी तिथिके पूजन श्लोकमें राम द्वारा रावण विजयके लिए इस पूजाको करने का वर्णन है. इसी तरह वासंती नवरात्रको रामनवमी (रामजन्म) से जोड़ना भी इस परम्परा पर वैष्णव प्रभाव ही है.
वैसे मूलत: नवरात्र शैव-शाक्त मतोंसे ही प्रभावित है. जिसका आधार ग्रंथ 'दुर्गाशप्ती' है. 700 श्लोकों और 13 अध्यायोंका यह 'देवी महात्म्य', मारकण्डेय पुराण में 81वें से 93वें अध्याय (कुछ प्रतियों में 78वें से 90वें अध्याय तक) पाया जाता है. इसमें सारे देवताओंके तेजसे देवीकी उत्पति और महिषासुअर वध सहित मधु=कैटभ, चण्ड-मुण्ड, शुम्भ-निषुम्भ, धूम्रलोचन, आदि राक्षसोंके वधका प्रसंग है. वाराहपुराणमें महिषासुर वधका प्रसंग बिल्कुल भिन्न (और बहुत कम प्रचलित) है.
जैसे 'महाभारत' में 'गीता' अपनी विलक्षणताके कारण अलग पुस्तकके रूपमें कई गुणा अधिक प्रचारित है उसी तरह मारकण्डेय पुराणका यह अंश अपने तांत्रिक प्रभावों के कारण अलग और लोकप्रसिद्ध है. दोनोंके ही बारे में एक मत यह भी है कि ये ग्रंथ मूलत: स्वतंत्र थे, बादमें इन्हें बड़े ग्रंथोंने आत्मसात कर लिया हालांकि तुलसीकृत रामचरितमानसमें सुन्दरकाण्डकी स्थिति वैसी ही होकर भी विवादित नहीं है.
सच्चाई चाहे जो भी हो, दुर्गासप्तशतीका वर्तमान रूप मूलपाठ (13 अध्याय और 700 श्लोक) से लगभग दोगुणा है. तंत्रक्रियाके विकासके साथ 'योगरत्नावली' और 'चिदमबर संहिता' ने कीलक, कवच और अर्गलाके तीन स्रोत भी जोड़ दिये गये और फिर दुर्गाद्वात्रिशन्नाममाला, दुर्गाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र, दुर्गासहस्रनाम आदि भी जुड़े. तांत्रिक रहस्यवादमें सूक्त प्रधानिक रहस्य, वैक्तिक रहस्य औअर मूर्तिरहस्य भी जुड़े. प्रत्येक अध्याय के साथ ध्यानके श्लोक जोड़े गये हैं और अन्य अनुष्ठानोंकी तरह नवर्णविधिको भी शामिल किया गया है. विशेष अनुष्ठानोंके लिए 'दुर्गोत्सवविवेक' (शूलपाणि कृत), 'दुर्गार्चन पद्धति' (रघुनंदनकृत), 'दुर्गापूजा प्रयोगतत्व' (संस्कृत साहित्य परिषदका यह प्रकाशन दुर्गार्चन पद्धति का सारांश मात्र है), 'दुर्गाभक्ति तरंगिणी' (विद्यापति कृत), 'नवरात्र प्रदीप'(विनायक अथवा नन्द पंडित कृत), दुर्गात्सव पद्धति (उदय सिंह कृत) आदि ग्रंथ उपलब्ध हैं.

1 comment:

Sumir Sharma said...

Kindly bring more articles like that.

Great.

sumir