Wednesday, July 13, 2005
मिर्ज़ा असद-उल्लाह ख़ां ग़ालिब की आबरू
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे,
कह्ते हैं के ग़ालिब का अंदाज़े बयां और
अंदाज़े ग़ालिब: सन 1852 में मिर्ज़ा ग़ालिब को नौकरी का बुलावा आया. दिल्ली कॉलेज में उन्हें फ़ारसी का प्रमुख शिक्षक बनाना था. बहुत बुरी आर्थिक हालत थी. इसीलिए प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. टॉमसन साहब गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया के सेक्रेट्री थे. उन्होंने बुलावा भेजा था. पालकी में बैठकर साहब के बंगले पर मिर्ज़ा ग़ालिब पहुंच गए. अंदर कहलावा भेजा और इंतिज़ार करने लगे, पर टॉमसन साहब उनके स्वागत के लिए बाहर नहीं आए. ग़ालिब के आत्मसम्मान को चोट पहुंची. वे वापस जाने लगे. टॉमसन साहब को उनकी नाराजगी का पता चला, तो बाहर आए. उन्होंने चचा ग़ालिब को समझना चाहा कि इस वक्त वह ख़ास मुलाक़ाती तो हैं नहीं, कि बाहर आकर उनका स्वागत किया जाता, वह तो नौकरी के लिए आए हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब टॉमसन साहब की दलील सुनकर जरा भी नहीं पिघले. उन्होंने तुरंत कहा, "जनाबे आली, अगर नौकरी का मतलब यह है कि इससे इज़्ज़त में कमी आ जाएगी, तो ऐसी नौकरी मुझे मंज़ूर नहीं." उन्होंने आदब बजाया और पालकी में सवार हो लौट पड़े.
सौजन्य: दीवान-ए-ग़ालिब
बड़े चर्चे हैं इन दिनों हिंदी में लाइव जर्नल के. तो चलिए चचा ग़ालिब आपको भी पहुंचा दें वहां.
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