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Showing posts from 2005

राजदीप सरदेसाई को दस में दस

ईमानदार कोशिशें हमेशा रंग लाती है. इसकी ताज़ा मिसाल है अपनी पीढ़ी में सबसे प्रतिभाशाली हिन्दुस्तानी पत्रकार राजदीप सरदेसाई का नया समाचार चैनल सीएनएन-आईबीएन . इस चैनल के टेस्ट सिग्नल की शुरुआत हो गई है और संभवत जनवरी के पहले सप्ताह से यह विधिवत मैदान में होगा. अगर आप पहली नज़र के प्यार पर यकीन करते हैं तो मैं कहना चाहूंगा कि कल रात पहली मुलाकात में ही मुझे सीएनएन-आईबीएन से प्यार हो गया. वैसे तो मैं खुद भी पत्रकार रहा हूं लेकिन इस बहुचर्चित और बहुप्रतिक्षित चैनल के सामने कल मैं एक आम दर्शक के रूप में बैठा था. मेरा अनुभव कहता है कि यह चैनल भीड़ से बिलकुल अलग है. राजदीप के आईबीएन सेना का हर सिपाही अपना बेस्ट देने की कामयाब कोशिश कर रहा था. सबसे मजेदार बात तो मुझे यह लगी कि इनमें से कुछ सिपाही जब दूसरी सेनाओं में थे तब वे इतने योग्य कभी नहीं लगे. इस बात के लिए मुझे एक बार फिर राजदीप के नेतृत्व की तारीफ करनी पड़ेगी. कल तकरीबन ढाई घंटे तक मैंने इनका प्रसारण देखा, न्यूज़ ब्रॉडकास्ट के हर क्षेत्र में यह चैनल नये मानक तय करता मालूम पड़ता है. सही मायने में इस चैनल की शुरुआत के साथ भारत में न्यूज़ ब्रॉडक...

सवेरा होगा

कुछ दूर, नहीं बहुत पास कुछ है, कुछ है वहां एक आकृति कुछ धुंधली-सी इधर ही आती नहीं, मैं ही चलूं वहां देखूं तो क्या वही है जिसकी है तलाश मुझे अरे! यह घुप अंधेरा कहां से आया कहां गई वो शुरू फिर वही तलाश जरूर कोई बात है तभी तो आई ये अमावस-सी रात है शायद मुझे रोशनी की तलाश है वह आकृति नहीं भटकाव था डगमगाया तभी तो मेरा पांव था होगी एक नई सुबह न आकृति होगी... न अंधेरा होगा... सिर्फ सवेरा होगा...

महाराष्ट्र और बिहार दोनों भारत में ही हैं

विश्वनाथ सचदेव लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार और नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक हैं. तीस-चालीस साल पुरानी हो चुकी यह बात। तब मैं नागपुर विश्वविद्यालय में पढ़ता था। जिस हॉस्टल में मैं रहता था, उसमें कई राज्यों के विद्यार्थी थे। सवेरे सबको जल्दी होती थी। गुसलखाने में रोज लाइन लगती थी। गर्म पानी के लिए सिर्फ एक गीजर था। अक्सर झड़प भी हो जाती थी। पर वह झड़प वहीं तक सीमित होती थी। नहा-धोकर फिर सब साथ हो जाते थे। किसी को किसी की 'दादागिरी' से शिकायत नहीं रहती थी। चालीस साल पुरानी ये बातें मुझे मुम्बई के जे.जे. अस्पताल में डॉक्टरी पढ़ रहे विद्यार्थियों के संदर्भ में याद आ रही हैं। हाल ही में यहां भी गर्म पानी पर विवाद हो गया था। पहले भी होता होगा ऐसा विवाद, पर इस बार मामला तूल पकड़ गया। सुना है, कुछ विद्यार्थी फरियाद लेकर शिवसेना के बागी नेता राज ठाकरे के पास जा पहुंचे। उन्हें शिकायत थी कि बाहरी राज्यों के, खासकर बिहार के, विद्यार्थी झगड़ा करते हैं। राज को इन दिनों मुद्दों की जरूरत है। वे तत्काल हस्तक्षेप के लिए तैयार हो गए। राज के प्रतिद्वंद्वी उद्धव को भी भनक लगी। मराठी माणूस का नारा लगाते हु...

अनुगूँज १५ - हम फिल्में क्यों देखते हैं?

हम फिल्में क्यों देखते हैं? जाहिर सी बात है फिल्में बनती हैं इसलिए हम फिल्में देखते हैं. यकीन मानिये अगर फिल्में नहीं बनतीं तो हम कुछ और देखते. मसलन, कठपुतली का नाच, तमाशा, जात्रा, नौटंकी, रामलीला या ऐसा ही कुछ और. खैर सौभाग्य या दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है इसलिए हम वापस फिल्मों की ओर चलते है. शुरू करते हैं सिनेमाघर में पहली फिल्म देखने से. इस मंदिर में मैंने पहली पूजा स्कूल से निकलने और कॉलेज में दाखिले के पहिले की थी. नाम तो ठीक-ठीक याद नहीं पर फिल्म में हिरोइन अपने अजय देवगन की श्रीमती (तब कुवांरी) काजोल थीं और शायद उनकी भी यह पहली ही फिल्म थी. ( पहली फिल्म देखने में मैंने इतनी देर क्यों की? मुगालते में मत रहिये... शराफत के किस्से आगे हैं.) कोलफील्ड की हमारी कॉलोनी शहर से बीस किलोमीटर दूर थी और हम बच्चों की पूरी दुनिया कॉलोनी तक ही सीमित हुआ करती थी. लिहाजा शहर के सिनेमाघर में यह फिल्म देखना मेरे लिए बड़ा ही साहसिक कदम और नये अनुभवों से भरा था... उस दिन तो मानो खुले आसमान में पहली उड़ान-सा अहसास था. अब चलिए जरा पीछे के कालखंड में चलकर मेरे फिल्में देखने के कारणों की पड़ताल करते हैं. तकर...

चांद बिक गया

अब तो आशिकों की आफ़त आई समझो... ग़लती से भी कहीं माशूका के सामने कह दिया कि 'मेरी जान! तुम कहो तो तुम्हारे लिए चांद तोड़ लाऊं', तो समझो मियां आप तो फंसे. बच्चों की लोरी से लेकर आशिकों की शायरी तक में चांद की रुमानियत को पाना हसीन ख़्वाब रहा है. लेकिन अब शायद ऐसा न रहे... क्योंकि चांद का काफी हिस्सा बिक गया है. जो बचा है उसकी भी दुकान सजी है. हां यह बात दीगर है कि खरीदने जाओ तो धरती पर अपना घर-द्वार बेचना पड़ जाये.

हनुमान बने बॉलीवुड के संकटमोचन

अभी-अभी मैं एनिमेशन फिल्म हनुमान देखकर आ रहा हूं. मजा आ गया. फिल्म की पूरी टीम बधाई की पात्र है. ऐसे प्रयासों को देखकर अब यकीन हो चला है कि बॉलीवुड में अभी जिने की तमन्ना बाकी है. इस फिल्म की तीन बातों के लिए तारीफ करनी होगी: 1. उच्च तकनीक का बेहतर इस्तेमाल 2. पश्चिम की नकल न करके अपने पौराणिक कथावस्तु की क्षमता में यकीन 3. हनुमान के बाल रूप का बेहतर चित्रण संगीत और संवाद वगैराह भी अच्छे रहे. कुल मिलाकर हनुमान एक साहसिक प्रयास है जो बॉलीवुड की तरफ से कुछ नया नहीं मिलने की शिकायत करने वालों को जरूर पसंद आयेगा. , पता नहीं बजरंगबली बॉक्स ऑफिस पर अपनी ताकत दिखा पायेंगे या नहीं पर इस फिल्म ने मुझे बेहद प्रभावित किया है. उम्मीद है आपको भी पसंद आयेग़ी. पर एक मिनट रूकिए... भाभीजी और बच्चों को साथ ले जाना मत भूलिएगा.

नवरात्र माहात्म्य

नवरात्र के महत्व के बारे में दैनिक 'आज' में पूर्व प्रकाशित मेरा आलेख हिन्दू पंचागके अनुसार आश्विन मासके शुक्ल पक्षकी प्रतिपदा तिथिको नवरात्रिका आरम्भ होता है. शरद ऋतुमें होने के कारण इसे शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है. 'मारकण्डेय पुराण' अध्याय 89 श्लोक 11 में कहा भी गया है कि 'शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी' और 'निर्णयसिन्धु' नामक धार्मिक विवादोंका समाधान करने वाला ग्रंथ भी यही मानता है. परंतु संस्कृतके प्रसिद्ध वैयाकरण नागोजी भट्टने 'वार्षिकी' को वासंती नवरात्र बोधक कहा है. 'निर्णयामृत' और 'समय मयूख' जैसे ग्रंथ भी इसका समर्थन करते हैं. ऐतिहासिक दृष्टिसे दुर्गापूजाका वर्तमान रूप कमोवेश दो हजार वर्ष पुराना है. षोडश मातृका अर्द्धनारीश्वर और देवीके गलेमें कपालमालाका उल्लेख महाकवि कालिदास कृत 'कुमार संभवम' में भी मिलता है. जिसका समय ईसापूर्व प्रथम शताब्दी है. इस तिथिपर भले ही विवाद हो लेकिन प्रथम-द्वितीय शताब्दीके कुषाण राजा कनिष्कके (या उसके बाद चंद्रगुप्त प्रथमके भी) सिक्कोंपर दुर्गाका वर्तमान रूप मिलता है. 'नवरात...

अकेली मां ही नहीं अब अकेला बाप भी

कभी-कभी कोई छोटी-सी घटना बड़ी बहस को जन्म दे देती है. पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के एक इन्फ़र्टिलिटी क्लीनिक में रविवार को जन्मे बच्चे अर्जुन ने समाज और कानून के स्तर पर कुछ ऐसी तरह की बहस की शुरुआत की है. (ख़बर यहां पढ़िये) तकनीक की मदद से मां बनती अकेली महिलाओं पर बहस अभी थमा भी नहीं कि अकेले बाप का मुद्दा हमारे सामने है. अकेली मां बनने के पीछे वजह जो भी गिनाया जाता रहा हो मगर मेरी समझ से असली मकसद महिलाओं द्वारा पुरुष प्रधान समाज को चुनौती देना ही है. ऐसे में एक तलाकशुदा पुरुष द्वारा अकेला बाप बनने का निर्णय लेना कहीं उस चुनौती का जवाब तो नहीं? एक तरफ तो इस तरह के मातृत्व या पितृत्व सुख में अपने विपरीत लिंगी साथी की भागीदारी को नकारा जा रहा है वहीं कुछ देशों में समलिंगी विवाह (?) को मिल रही मान्यता एक डर पैदा कर रही है. मैं यह सोचने को विवश हो गया हूं कि कहीं समाज की मूलभूत संरचना में ही तो बदलाव नहीं हो रहा है?

"भोजपुरिया" का पदार्पण

मुम्बई ब्लॉग के माध्यम से यह सूचित करते हुए मुझे अपार हो रहा है कि ब्लॉग जगत में हिंदी की छोटी बहन भोजपुरी को समर्पित एक ब्लॉग "भोजपुरिया" का पदार्पण हो चुका है. संभवत: यह भोजपुरी का पहला ब्लॉग है. "भोजपुरिया" सिर्फ ब्लॉगिंग न होकर पॉडकास्टिंग भी है जिसमें भोजपुरिया को आवाज़ देने की भी कोशिश की गई है. मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि जिस तरह आपने "मुम्बई ब्लॉग" को अपना स्नेह दिया है वैसा ही प्यार "भोजपुरिया" को भी मिलेगा. धन्यवाद.

दिल गार्डेन-गार्डेन हो गया

भारतीय फुटबॉल में तो कभी कुछ ऐसा नहीं रहा जो हमें आकर्षित करे मगर एशियन फुटबॉल कंफेडरेशन की हिन्दी में जारी ये आधिकारिक वेबसाइट देखकर दिल गार्डेन-गार्डेन हो गया. आप भी देखिये... एशियन फुटबॉल कंफेडरेशन

वो भीख नहीं मांगता

(आज से मुम्बई ब्लॉग में मैं कहानियों की एक नई श्रृंखला की शुरुआत कर रहा हूं. मेरी कहानियों का नायक तो मुझे मिल गया है लेकिन उसका नामकरण संस्कार होना अभी बाकी है. ब्लॉग बिरादरी से मेरा यह आग्रह है कि मेरी कहानी के नायक के लिए कोई बढ़िया-सा नाम सुझाये. नाम देने के लिए मेरा नायक आप सबका आभारी रहेगा.) वो भीख नहीं मांगता अमूमन उसके जैसे लड़के स्टेशनों पर भीख़ ही मांगते हैं मगर वो अंधेरी स्टेशन पर पानी की बोतलें बेचता है. दस रुपये की एक बोतल के पीछे उसे दो रुपये मिल जाते हैं. इससे ज्यादा तो उसके साथी भगवान या अल्लाह के नाम पर कमा लेते हैं... शायद किसी स्वाभिमानी का खून है ये. उसकी उम्र अभी यही कोई नौ-दस होगी मगर बला की फूर्ति है लड़के में. जब से उसे देखा है ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं रह गयी है, उल्टे खुद पर कोफ़्त हो रही है कि अब तक ज़िंदगी से शिकायत ही क्यों थी? उस दिन सबेरे खचाखच भरी चर्चगेट लोकल में उल्टी तरफ गेट पर खड़ा ललित नारायण मिश्रा से लेकर लालू यादव तक, सभी रेलमंत्रियों को मन-ही-मन कोस रहा था. अंधेरी स्टेशन पर लोकल पहुंची, प्लेटफॉर्म की तरफ वाली गेट पर चढ़ने-उतरने वालों के रेला का इस तरफ ...

तबाही के मंजर पर मुम्बईया हौसले की जीत

ऐसा मंजर जो कल तक ख़्वाबों की हद में भी नहीं था, आज हकीकत बन हम सब को दहला गया. एक तरफ मुम्बई महानगर सदी की सबसे भयानक बारिश की मार झेल रहा था तो दूसरी तरफ समुद्र के बीच मुम्बई हाई में लपटों का कहर टूट पड़ा. इन दोनों घटनाओं को जब हम एक साथ देखते हैं, तो अपने भीतर गहराई तक पीड़ा का अहसास घर कर जाता है. मुम्बई में 24 घंटों के दौरान लगभग सौ सेंटीमीटर पानी बरस पड़ा. ऐसे समय, जब समन्दर में ज्वार उठा हो, शहर को डूबना ही था. इस आपदा ने देश की आर्थिक राजधानी को पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर दिया है. जिंदगी को पटरी पर आने में कुछ समय लगेगा और नुकसान के घाव भी धीरे-धीरे ही भर पाएंगे. एक मुम्बईकर होने के नाते इतना तो यकीन है कि मुम्बई बहुत जल्द अपने पुराने रंग में लौट आयेगी. प्रधानमंत्री का मुम्बईकरों के जज्बे को सलाम करना मेरे इस यकीन को बल देता है. सबसे बड़ी बात तो काबिलेगौर है कि बाढ़, बारिश और अंधकार के उन क्षणों में भी मुम्बईकरों ने धीरज नहीं छोड़ा और गुस्से से परहेज किया. इस बात को न सिर्फ मुम्बई के आकाओं बल्कि केंद्र की सरकार द्वारा भी कद्र की जानी चाहिए. मुम्बई में बारिश की तस्वीरें

भारी बरसात से मुम्बई में अफरा-तफरी का माहौल

आज मुम्बई में मौसम की सबसे जोरदार बारिश हुई है जो अभी लगातार जारी है. जिससे शहर की व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है. अभी रात के 11.30 बजे भी सड़कों पर है गाड़ियों की लम्बी कतारें और हैरान-परेशान लोग. यहां की जीवन रेखा कहीं जाने वाली लोकल ट्रेनों की रफ्तार भी धीमी पड़ गई है. रफ्तार के इस शहर में मानो सबकुछ थम-सा गया है. यहां लोग 40-50 किलोमीटर दूर घंटे-डेढ़ घंटे का सफर कर काम करने मध्य और दक्षिण मुम्बई की ओर आते हैं. यूं तो छिटपुट बारिश पिछले दो-तीन दिनों से हो रही है मगर आज दिन की बारिश में सबकुछ अस्त-व्यस्त कर दिया. यहां तक कि कुछ घंटों के लिए फोन सेवाएं भी बुरी तरह बाधित रहीं. सुबह तक तो लगभग सबकुछ ठीक था. मगर शाम तक कई इलाकों में रेलवे ट्रैक और सड़कों पर पानी भर गया जिससे स्टेशनों पर भारी भीड़ और सड़कों पर गाड़ियों की कतारें दिखने लगी. मेरा घर भी लोअर परेल स्थित मेरे ऑफिस से घंटे भर की दूरी पर है, इसीलिए मैं तो शाम को ही द्फ्तर के पास ही रहने वाले एक दोस्त के घर जा पहुंचा. वहां मीडिया वाले कुछ और दोस्त धमके हुए थे. सबके अलग-अलग सूत्रों से अलग-अलग तरह की ख़बरे मिली. रात को जब फोन सेवाएं बहाल ...

डर हमारी जेबों में

प्रमोद कुमार तिवारीजी के उपन्यास 'डर हमारी जेबों में' का अंश पढ़िये. बड़ा खूबसूरत और मार्मिक है यह... वैसे तो उपन्यास कुछ पुराना है लेकिन इस बार कथा, यूके ने इसे इंदु शर्मा-2005 पुरस्कार से सम्मानित करने का फ़ैसला किया है और इसी से यह पुस्तक एक बार फिर प्रासंगिक हो गई है. उपन्यास के अंश के लिए यहां क्लिक करें.

प्रेमकंद बनाम प्रेमचंद

(पिछले आलेख " प्रेमचंद का बॉयोडाटा " के संदर्भ में) कन्फ्युजियाइये मत स्वामीजी , ई न टाईपो है आउर न ह्युमर है, ई तो हमरा आपन मिस्टेक बुझा रहा है. अभी ठीक किये देते हैं. वैसे हमको हमरा विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि श्री प्रेमचंदजी अपनी आत्मा हमरा भीतर प्रवेश करवाकर हमरा से ई ग़लती करवाएं हैं. अभी भाया चित्रगुप्तजी हम प्रेमचंदजी से संपर्क करने का कोशिश किया. वहां से एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिये स्पष्टीकरण आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि उ चैनल बाबू के लिए का प्रेमचंद?.. का प्रेमकंद आउर का शकरकंद?... सब धन बाइस पसेरी. इसीलिए प्रेमचंदजी की आत्मा की इच्छा थी कि चैनल बाबू जैसे लोगों को प्रेमकंद या शकरकंद या चाहे जिसका बायोडाटा भिजवाना हो भिजवा दिया जाए. प्रेमचंद की किताबों के बारे में बिल्कुल न बताया जाए वरना जीते जी तो अब नहीं कह सकते, हां मरते जी फिर से मर जाएंगे. फिर हमने दूबारा निवेदन किया श्री प्रेमचंदजी, इस धरती पर स्वामीजी जैसे लोग भी हैं जो 'प्रेमकंद' के नहीं, 'प्रेमचंद' और उनके साहित्य के रसिक है. निवेदन स्वीकृत हो गया है और अब दुनिया के सामने 'प्रे...

प्रेमचंद का बायोडाटा

बालाजी छाप टी.वी. सीरियलों के बारे में आपके घर में भी बातें जरूर होतीं होंगी. इन सीरियलों को आप नापसंद कर सकते हैं या मुमकिन है आप इनके दीवानें हों लेकिन यह संभव नहीं कि आप इन्हें नजर अंदाज कर सके. तो चलिए आज इस बारे में ही कुछ बात करते हैं. वैसे तो टी.वी. लेखक का माध्यम कहा जाता है. मगर यहां लेखकों की क्या दुर्गति है इसकी एक बानगी पेश-ए-खिदमत है:- आदर्श स्थिति में एक सीरियल बनाने के लिए एक अदद कहानी की जरुरत होती है, फिर इस कहानी पर आधारित कुछ एपिसोड की पटकथा और संवाद की तैयारी होनी चाहिए. इतना होने के बाद लेखक को एक ऐसे साहसी व्यक्ति का समर्थन चाहिए होता है जिसे प्रोड्यूसर कहा जाता है. फिर चैनल वालों को राज़ी करना होता है. अगर इन्हें कहानी पसंद आई तो फिर समझिए गाड़ी चल निकली. ये तो थी आदर्श स्थिति. जबकि हकीकत यह है कि यहां गंगा उलटी बहती है. चैनलों के कर्ता-धर्ता यूं तो दिखते आधुनिक... नहीं शायद मैं कुछ ग़लत कह गया... अत्याधुनिक हैं पर कभी-कभी तो इनके काम का तरीका इतना पौराणिक है कि अपने सरकारी बाबु भी शर्मसार हो जाएं. चलाते तो हिंदी चैनल हैं पर इन चैनल बाबुओं का हिंदी ज्ञान देखकर सारे ...

किनारे बनाम लहरें

लहरें किनारों का अपना अहं है... लेकिन लहरों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. ये तो अठखेलियां करते... किनारों के बीच से अपनी ही धुन में बढ़े चले जाते हैं. एक वक्त... एक गहराई... एक समंदर... जहां किनारों का कोई जोर नहीं, सिर्फ लहरें ही लहरें... चारों ओर लहरें... और किनारे? इस भरम में जीते हैं कि उसने लहरों को बांध रखा है. हकीकत तो यह है कि मगरूर किनारों में इतना जोर नहीं कि वे लहरों में चार कदम उतर कर देखें... डूबने का खतरा जो है. चढ़ती-उतरती लहरों की ताकत है उनकी लय... उनका रिद्म... जिसे आजतक न कोई किनारा तोड़ पाया है और न कभी तोड़ पाएगा. वैसे किनारों का भी दर्द कुछ कम नहीं... जरा इनके दर्द पर गौर फरमाइये साहिल बहते दरिया के मौजों ने की हंसी न जाना खिलखिलाहट ने दर्द-ए-साहिल ये इश्क भी कैसा कि... दीदार का तो इकरार है पर... ताउम्र न मिलने की इक कसम मौजों से कह दो कह दो कि दरिया की गहराई का गुरूर न करे ग़म-ए-आशिकी में साहिल के अश्क़ इतने बह जाएंगे कि... दरिया दुजा बहता देख मौजें भी शर्मसार हो जाएंगी बनकर खुद साहिल साहिल की आशिकी को अंजाम तक पहुंचाएंगी

कुछ भोजपुरी हो जाए

आज भोजपुरी में कुछ लिखे के मन करता... बाकि बुझाते नइखे कि कहां से शुरू कइल जाए. अच्छा चली रामजी के नाव लेके कोलियरी चलल जाव. रउआ लो में से अगर केहू भोजपुरिया होई त उनके यह बात के जरूर ज्ञान होई कि अपना भोजपुरी समाज में कलकत्ता के चटकल के बाद सबसे अधिका प्रभाव कोलियरिये के पड़ल बा. वइसे इ बता दीं कि हमहूं कोलियरिये के गर्दा फांक के सयान भइल बानी. भोजपुरिया समाज के मूल बिहार अ यु.पी. ह बाकि इत्र के सुगंध खानी आज हमनी दुनिया के हर कोना में पाय जाय वाला प्रजाति के जीव हो गइल बानी स. लेकिन जब कोलियरी के बात होता त बिहार से कटके नया बनल राज्य झारखंड चले के पड़ी. वइसे इ अलग बात बा कि यह बंटवारा से कुछ नेताजी लोग के छोड़ के शायदे केहू के भला भइल बा. आज त हालात बहुत बदल गइल बा बाकि पापा (32 साल कोलियरी में नौकरी करके इहे 30 जून के रिटायर भइनी ह) बतावेनी कि पहिले कोलियरी में केहू आवल ना चाहत रहे. गरीबी के मार कहीं भा कौनो आउर मजबुरी भोजपुरी क्षेत्र के आपन किसानी छोड़के लोगन के कोयलांचल के जंगल-झाड़ में आके आपन किस्मत आजमावे के सिलसिला बहुत पुरान ह. सत्तर के दशक में कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद...

मिर्ज़ा असद-उल्लाह ख़ां ग़ालिब की आबरू

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे, कह्ते हैं के ग़ालिब का अंदाज़े बयां और अंदाज़े ग़ालिब: सन 1852 में मिर्ज़ा ग़ालिब को नौकरी का बुलावा आया. दिल्ली कॉलेज में उन्हें फ़ारसी का प्रमुख शिक्षक बनाना था. बहुत बुरी आर्थिक हालत थी. इसीलिए प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. टॉमसन साहब गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया के सेक्रेट्री थे. उन्होंने बुलावा भेजा था. पालकी में बैठकर साहब के बंगले पर मिर्ज़ा ग़ालिब पहुंच गए. अंदर कहलावा भेजा और इंतिज़ार करने लगे, पर टॉमसन साहब उनके स्वागत के लिए बाहर नहीं आए. ग़ालिब के आत्मसम्मान को चोट पहुंची. वे वापस जाने लगे. टॉमसन साहब को उनकी नाराजगी का पता चला, तो बाहर आए. उन्होंने चचा ग़ालिब को समझना चाहा कि इस वक्त वह ख़ास मुलाक़ाती तो हैं नहीं, कि बाहर आकर उनका स्वागत किया जाता, वह तो नौकरी के लिए आए हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब टॉमसन साहब की दलील सुनकर जरा भी नहीं पिघले. उन्होंने तुरंत कहा, "जनाबे आली, अगर नौकरी का मतलब यह है कि इससे इज़्ज़त में कमी आ जाएगी, तो ऐसी नौकरी मुझे मंज़ूर नहीं." उन्होंने आदब बजाया और पालकी में सवार हो लौट पड़े. सौजन्य: दीवान-ए-ग़ालिब बड़े चर्चे हैं इन दिनों हिंदी में...

ये है हमारी गुजरात पुलिस

शर्म इनको मगर नहीं आती... पूरा किस्सा यहां पर

आउउउउ... ... बदले-बदले से शक्ति कपूर

इंडिया टीवी के स्टिंग ऑपरेशन के सदमे ने शक्ति (आउउउउ) कपूर की दिमागी हालत इतनी बिगाड़ दी है कि उन्होंने दूसरों का दिमाग खराब करने का पक्का मन बना लिया है. जी हां, वे लेखक बन गये हैं. अगर उनका लेखन स्टिंग ऑपरेशन से प्रभावित हुआ तब तो तय है कि उनका आउउउउ... साहित्य सिर्फ बड़े बच्चों के लिए ही होगा.

हम-तुम

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आपातकाल और ब्लॉग की दुनिया

आज से तीस साल पहले (तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था) आज की ही रात भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की सबसे स्याह रात साबित हुई थी. जी हां मैं आपातकाल की ही बात कर रहा हूं. शुक्र है हमारी पिछली पीढ़ी ने अपनी जागरूकता की रोशनी से उस अंधेरे को हम तक पहुंचने से पहले ही खत्म कर दिया. आज हम जो ये अपनी ब्लॉग की दुनिया बनाए बैठे हैं, कहीं न कहीं इसका श्रेय उनको ही जाता है. बोलने की आजादी के लिए लड़ी गई उस लड़ाई को याद करने का यह सही मौका है. ब्लॉग जगत के हमारे कई साथी तो उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व भी करते हैं उनसे मेरा आग्रह है कि उन दिनों के अपने अनुभवों को हमारी पीढ़ी की संग बांटें. वैसे ये मुद्दा विश्व स्तर आज भी प्रासांगिक है. अभी हाल ही में Microsoft China ने चीनी ब्लॉग जगत में सेंसरशिप लगा ही दिया है. Microsoft censors Chinese blogs

बेवफाई

इश्क का सफर ये कैसा ना शुरू की ख़बर ना आखिर का गुमां हो रास्ते में आपका साथ था बस यही एक अरमां सुना था... हर रिश्ते का जरूरी होता है इक नाम आप माशूक हैं हमारे हमने भी कह डाला सरेआम पड़ते ही नाम हुआ ये अंजाम कि बाकी है अब पकड़ना महज इक जाम बड़े-बुढ़े ठीक कहा करते सुनी-सुनाई बातों पर यकीन ना कर अच्छी भली ख़्वाहिश आज बेवफा-सी तो ना लगती

मुम्बई के सच्चे सिपाही

पिछले एक हफ्ते से मुम्बई में हो रही भारी बारिस कहीं तेज रफ्तार शहर की गति को धीमा न कर दे इसी जद्दोजहद में कुर्ला स्टेशन के नजदीक लगे हुए हमारे कर्मठ रेलकर्मी. ( चित्र: बी.एल.सोनी ) mid-day

हिंदी की हालत

यह सुनकर बड़ा अच्छा लगता है कि हिंदी एक जीवंत भाषा है, लेकिन दिल से आह निकल जाती है, जब किसी मृत होती भाषा के शुरुआती लक्षण हिंदी में भी दीख पड़ते हैं. इस स्थिति के लिए भाषाई कारण कम, राजनैतिक कारण अधिक उत्तरदायी हैं. इन कारणों का विश्लेषण करना मैं नहीं चाहता. मुझे हिंदी की जीवनी शक्ति पर पूरा भरोसा है. डर है तो सिर्फ हिंदी के उन तथाकथित समर्थकों से, जो हिंदी के विकास के नाम पर हिंदी की ही जड़ खोदने में लगे हैं. दो सौ वर्षों की गुलामी के दौरान अंग्रेजी के भाषायी साम्राज्यवाद की शिकार रही हिंदी का, आजादी के बाद पोषण के बदले इन कथित हिंदी समर्थकों ने हिंदी की सहयोगी भाषाओं (जिन्हें उन्होंने बोली कहा है) के शोषण का कुचक्र शुरू कर दिया. ये हिंदी की अपनी ही जड़ों में मठ्ठा डालनेवाली बात हो गयी. आज जरुरत इस बात की है कि हिंदी की सहयोगी भाषाओं का स्वतंत्र विकास सुनिश्चित किया जाए, इससे अंततोगत्वा हिंदी न केवल राष्ट्रभाषा, वरन विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर होगी.

धूम्रपान दृश्यों पर 2 अक्टूबर से प्रतिबंध

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और सूचना मंत्रालय की बैठक के बाद यह फ़ैसला हुआ है कि दो अक्टूबर से फ़िल्मों और टीवी में धूम्रपान के दृश्यों पर प्रतिबंध लागू हो जाएगा. और जानिए... >सिनेमा और टीवी के पर्दे पर सिगरेट के इस्तेमाल पर लगी रोक बेशक एक सराहनीय कदम है लेकिन धूम्रपान से होने वाले नुक़सानों के ख़िलाफ़ ऐसे क़दम तब तक नाकाफ़ी ही साबित होंगे जब तक कि इसकी जड़ यानी कि इसके निर्माण पर रोक न लगाई जाए. भला नैतिकता का यह कैसा पाठ कि एक तरफ तो हमारी सरकार ऐसी पाबंदियों कि बात करती है वहीं दुसरी तरफ तम्बाकू उद्योग से प्राप्त होने वाले भारी राजस्व को भी छोड़ना नहीं चाहती.

'ख़ास' और 'आम' कानून

अगर आप मानते हैं कि राजे-रजवाड़े बीते दिनों की बातें हैं तो आप मुगालते में हैं. यकीन न हो तो किसी पुराने नवाब या नये नवाबजादों की सनक के रास्ते आकर देखिए. भारत में अक्सर 'ख़ास' लोगों के आपराधिक मामलों में फंसने की ख़बर आती है, कभी दलेर मेंहदी, सलमान ख़ान, तो कभी मंत्रिपद संभाल रहे शिबू सोरेन की. इन दिनों सुर्खियों में है टाइगर मंसूर अली ख़ां पटौदी और टाइम पत्रिका में नाम दर्ज करवानेवाले पटना के पूर्व ज़िलाधीश गौतम गोस्वामी. अगर आप आम आदमी हैं तो पुलिस बिना बात के भी आपको उठाकर ले जा सकती है. ख़ास हैं तो फिर डरने की क्या बात है. मजे से अपराध कीजिए, फुरसत मिले तो अग्रिम जमानत ले लीजिए. वैसे जब तक न मिले तब तक अंडरग्राउंड रह सकते हैं. पुलिसवाला आपके घर आपकी दावत में बतौर मेहमान आयेगा जरूर, मगर क्या मजाल जो आपको पहचान जाए. सिर पर घोषित इनाम का बुरा तो आम लोग मानते हैं. ख़ास तो इसे सिर का ताज मानते हैं. वाह ताज! वैसे अमेरिका की नकल में भले हमारा कोई सानी नहीं, मगर इस मामले में? स्वदेसी आंदोलन जिंदाबाद! भले ही अमेरिकी पुलिस अपनी एक 'ख़ास' हस्ती, मशहूर अभिनेता रसेल क्रो, को सारी द...

खाली हाथ

न देख इन हाथों को इस कदर हिकारत से गर मिल जाए एक पत्थर भी इसे भगवान बना देते हैं सजदा करता है तू जिन जवाहरात का कभी पड़े थे इन्हीं हाथों में एक पत्थर की तरह

विक्षिप्त है वर्तमान

विक्षिप्त है वर्तमान बता इतिहास किसने किया इसका अपमान जन्मा तो यह तेरे ही कोख से था मासूम, अबोध, नादान आह्लादित था भविष्य देख इसकी मुस्कान विक्षिप्त है वर्तमान इतिहास कहता है: मैं हूं इसका साक्षी मुझे है इस सब का ज्ञान सुनों दोषियों के षडयंत्र की दास्तान पर रे भविष्य तू क्यों रोता है पाया क्या था जो तू खोता है पूछ मुझ इतिहास से दर्द क्या होता है देखा है मैंने ईमान को लुटते हुए सत्य के अरमान को घुटते हुए यह वर्तमान जो तुझ तक पहुंचा है कोशिश इसने भी कम न की थी लेकिन अतीत पर दोषारोपण से बच न सका तभी तो विक्षिप्त है वर्तमान

ये धंधा है...

माइक्रोसॉफ़्ट ने इंडोनेशिया को रियायत दी... देना ही पड़ेगा बिल भइया, क्या करोगे ये धंधा है... धंधे में रहना है तो पंगे नहीं लेने का. अमरीकी सॉफ़्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ़्ट ने सरकारी दफ़्तरों में अपने जाली उत्पादों के इस्तेमाल के मामले में इंडोनेशिया के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करने का फ़ैसला किया है. माइक्रोसॉफ़्ट और इंडोनेशिया सरकार के बीच सहमति बन गई है. bbc

जिन्ना बनाम आडवाणी

पता नहीं क्यों भाजपा और संघ परिवार के मुद्दे अक्सर भावनात्मक ही क्यों होते हैं. क्या फर्क पड़ता है यदि आडवाणी ने जिन्ना को 'धर्मनिरपेक्ष नेता' कह दिया. इसे तो मैं भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का इतिहास के प्रति दुराग्रहों के खुलते गांठ के रूप में देखता हूं. दो देशों के रिश्तों में सुधार के लिए यदि तथाकथित विचारधारा (अहं) से थोड़ा उन्नीस-बीस होना भी पड़े तो भी यह घाटे का सौदा नहीं होगा. पर हां, ऐसी ही उम्मीद हमें पाकिस्तान के दक्षिणपंथियों से भी होगी. BBC

पर्दे पर कश की कशमकश

कभी-कभी किसी समस्या से निपटने की सरकारी कोशिश किसी कॉमेडी फिल्म के सीन-सा मालूम पड़ती है. फ़िल्म, टीवी और विज्ञापनों में सिगरेट या किसी भी तरह के तम्बाकू उत्पाद के इस्तेमाल पर रोक का सरकारी फरमान भी ऐसा ही जान पड़ता है. हो सकता है इसके पीछे नीयत अच्छी हो, मगर यह निहायत ही अव्यवहारिक फैसला है. इसमें कोई शक़ नहीं कि फिल्म और टीवी का समाज पर व्यापक प्रभाव है. समाज में असली नायकों के अभाव में पर्दे के नायक ही रोल मॉडलों भूमिका में भी आ गये हैं. ऐसे में पर्दे पर इनकी हरकतों का युवा वर्ग पर प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता. समझने वाली बात यह है कि ये नायक नहीं बल्कि पर्दे पर समाज का ही प्रतिबिंब मात्र हैं. इनसे आदर्श छवि की उम्मीद ख़्याली पुलाव के सिवा और कुछ नहीं. रही बात तम्बाकू के कुप्रभावों से समाज को बचाने की तो उसके लिए ऐसे चोंचलों की नहीं ईमानदार कोशिश की जरुरत है. सरकार अगर वाकई इस मामले में कुछ करने की हसरत रखती है तो उसे चाहिए कि तम्बाकू उत्पादों से प्राप्त होने वाले राजस्व का मोह छोड़े और तम्बाकू व उसके उत्पादों के उत्पादन को प्रतिबंधित करे. या फिर इस सरकारी फिक्र को धुंएं में उड़ता ह...

दर्द

दरख़्त की बेबसी पीले पड़ते पत्तों की जिंदगी टूटे जो साख से दर्द की इंतहां थी

अश्रु

समय का एक पल चुभ गया हृदय में शूल बनकर असह्य वेदना देख हृदय की अश्रु हुआ विह्वल घड़ी यह उसकी परीक्षा की खुली पलकों की खिड़की नम पुतलियों का छूटता आलिंगन काजल की चौखट को कर पार ठपकी बूंद बनकर कपोल पर चुभ गया यह विरह का एक पल बनकर हरा रहेगा घाव सदा अश्रु का कपोल पर सूख भले ही बूंद जाए

जेठ की कजरी

जेठ की उमस भरी दुपहरी बेचैन-सी कजरी हाय रे, बनाती तू अमीरों के महले-दूमहले झोपड़ी मयस्सर न तुझे रे कजरी पेड़ पर टांगा है पुरानी धोती का पालना जिस पर झूलता है तेरा लालना सिर पर गारे की तगाड़ी संभाले एक हाथ दूसरे हाथ में है मलिन चीथड़े का पल्लू क्या संभाले वो एक में है उसके भूखे बच्चे की रोटी दूसरे हाथ में अस्मिता है सिमटी करती वो परवाह किसकी देता उसे क्या जमाना भूखे गिद्ध-सी नजरे और हवस का नजराना जीतती है मां, हारती यौवना नहीं वो सिर्फ यौवना,एक मां भी है जिसे पूजता सारा जमाना